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________________ स्वर्गखण्ड ] • व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन • ३९१ निवास न करे। चाण्डालोंके गाँवके समीप नहीं रहना गुरु और ब्राह्मणके लिये किये जानेवाले दानमें रुकावट चाहिये। पतित, चाण्डाल, पुल्कस (निषादसे शूद्रामें न डाले। अपनी प्रशंसा न करे तथा दूसरेकी निन्दाका उत्पन्न), मूर्ख, अभिमानी, अन्त्यज तथा अन्त्यावसायी त्याग कर दे। वेदनिन्दा और देवनिन्दाका यत्नपूर्वक (निषादकी स्त्रीमें चाण्डालसे उत्पन्न) पुरुषोंके साथ त्याग करे।* मुनीश्वरो ! जो द्विज देवताओं, ऋषियों कभी निवास न करे । एक शय्यापर सोना, एक आसनपर अथवा वेदोंकी निन्दा करता है, शास्त्रोंमें उसके उद्धारका स्थित होना, एक पंक्तिमें बैठना, एक बर्तनमें खाना, कोई उपाय नहीं देखा गया है। जो गुरु, देवता, वेद दूसरोंके पके हुए अन्नको अपने अन्नमें मिलाकर भोजन अथवा उसका विस्तार करनेवाले इतिहास-पुराणकी करना, यज्ञ करना, पढ़ाना, विवाह-सम्बन्ध स्थापित निन्दा करता है, वह मनुष्य सौ करोड़ कल्पसे अधिक करना, साथ बैठकर भोजन करना, साथ-साथ पढ़ना कालतक रौरव नरकमें पकाया जाता है। जहाँ इनकी और एक साथ यज्ञ कराना ये संकरताका प्रसार निन्दा होती हो, वहाँ चुप रहे; कुछ भी उत्तर न दे। कान करनेवाले ग्यारह सांकर्यदोष बताये गये हैं। समीप बंद करके वहाँसे चला जाय । निन्दा करनेवालेकी ओर रहनेसे भी मनुष्योंके पाप एक-दूसरेमें फैल जाते हैं। दृष्टिपात न करे । विद्वान् पुरुष दूसरोंकी निन्दा न करे। इसलिये पूरा प्रयत्न करके सांकर्यदोषसे बचना चाहिये। अच्छे पुरुषोंके साथ कभी विवाद न करे, पापियोंके जो राख आदिसे सीमा बनाकर एक पंक्तिमें बैठते और पापकी चर्चा न करे। जिनपर झूठा कलङ्क लगाया जाता एक-दूसरेका स्पर्श नहीं करते, उनमें संकरताका दोष है; उन मनुष्योंके रोनेसे जो आँसू गिरते हैं, वे मिथ्या नहीं आता। अग्नि, भस्म, जल, विशेषतः द्वार, खंभा कलङ्क लगानेवालोंके पुत्रों और पशुओका विनाश कर तथा मार्ग-इन छःसे पंक्तिका भेद (पृथक्करण) डालते हैं। ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी और गुरुपत्रीगमन होता है। आदि पापोंसे शुद्ध होनेका उपाय वृद्ध पुरुषोंने देखा है; अकारण वैर न करे, विवादसे दूर रहे, किसीकी किन्तु मिथ्या कलङ्क लगानेवाले मनुष्यकी शुद्धिका कोई चुगली न करे, दूसरेके खेतमे चरती हुई गौका समाचार उपाय नहीं देखा गया है। कदापि न कहे। चुगलखोरके साथ न रहे, किसीको बिना किसी निमित्तके सूर्य और चन्द्रमाको चुभनेवाली बात न कहे। सूर्यमण्डलका घेरा, इन्द्रधनुष- उदयकालमें न देखे; उसी प्रकार अस्त होते हुए. जलमें बाणसे प्रकट हुई आग, चन्द्रमा तथा सोना-इन प्रतिबिम्बित, मेघसे ढके हुए, आकाशके मध्यमें स्थित, सबकी ओर विद्वान् पुरुष दूसरेका ध्यान आकृष्ट न करे। छिपे हुए तथा दर्पण आदिमें छायाके रूपमें दृष्टिगोचर बहुत-से मनुष्यों तथा भाई-बन्धुओंके साथ विरोध न होते हुए सूर्य-चन्द्रमाको भी न देखे। नंगी स्त्री और नंगे करे। जो बर्ताव अपने लिये प्रतिकूल जान पड़े, उसे पुरुषकी ओर भी कभी दृष्टिपात न करे। मल-मूत्रको न दूसरोके लिये भी न करे। द्विजवरो ! रजस्वला स्त्री देखे; मैथुनमें प्रवृत्त पुरुषकी ओर दृष्टि न डाले। विद्वान् अथवा अपवित्र मनुष्यके साथ बातचीत न करे । देवता, पुरुष अपवित्र अवस्थामें सूर्य, चन्द्रमा आदि ग्रहोंकी *न चात्मानं प्रशंसेता परनिन्दी च वर्जयेत् । वेदनिन्दा देवनिन्दा प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥ (५५१३५) + निन्दयेदा गुरुं देवं वेदं वा सोपवृंहणम् । कल्पकोटिशर्त साग्रं रौरवे पच्यते नरः॥ तूष्णीमासीत निन्दायर्या न ब्रूयात् किञ्चिदुतरम् । कर्णी पिधाय गन्तव्यं न चैनमवलोकयेत् ॥ (५५ । ३७-३८) * नृणां मिथ्याभिशस्ताना पतन्त्यणि रोदनात् । तानि पुत्रान् पशून् घन्ति तेषां मिथ्याभिशंसिनाम्॥ ब्रह्महत्यासुरापाने स्तेये गुङ्गिनागमे । दृष्ट वै शोधन वृद्धनास्ति मिथ्याभिशंसिनि ॥ (५५।४१-४२)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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