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________________ ३२२ • अर्थपस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण याचना करते हैं, उन श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीवामनजीको मैं प्रणाम भगवान् वामनके उस विक्रमकी कहीं तुलना नहीं है, मैं इस करता है। भगवान्ने जब वामनसे विराट्प होकर अपना समय उस विक्रमका स्तवन करता हूँ। पैर बढ़ाया, तब उनका विक्रम (विशाल डग) आकाशको भगवान् श्रीविष्णु कहते है-राजन् ! इस आच्छादित करके सहसा तपते हुए सूर्य और चन्द्रमातक प्रकार यह सारा वृत्तान्त मैंने तुम्हें सुना दिया। पहुँच गया; इस बातकोसूर्यमण्डलमें स्थित हुए मुनिगणोंने कुञ्जल पक्षी तथा महात्मा च्यवनका चरित्र नाना भी देखा। फिर उन चक्रधारी भगवान्के विराट्पमें, जो प्रकारकी कल्याणमयी वार्ताओंसे युक्त है। मैं इसका समस्त विश्वका खजाना है, सम्पूर्ण देवता भी लीन हो गये। वर्णन करूंगा, तुम सुनो। कुञ्जल पक्षी और उसके पुत्र कपिञ्जलका संवाद-कामोदाकी कथा और विहुण्ड दैत्यका वध भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-धर्मात्मा कुञ्जलने कहते हैं। वह तालाब परम पवित्र और निर्मल जलसे अपने चौथे पुत्र कपिालको पुकार कर बड़ी प्रसन्नताके सुशोभित है। साथ कहा-'बेटा ! तुम मेरे उत्तम पुत्र हो; बोलो, महामते ! गङ्गाहदके सामने ही शिलाके ऊपर एक आहार लानेके लिये यहाँसे किस स्थानपर जाते हो? कन्या बैठी थी, जिसके केश खुले थे। रूपके वैभवसे वहाँ तुमने कौन-सी अपूर्व बात देखी अथवा सुनी है ? वह मुझे बताओ।' - कपिझलने कहा-पिताजी ! मैंने जो अपूर्व बात देखी है, उसे बताता हैं. सुनिये। कैलास सब पर्वतोंमें श्रेष्ठ है। उसकी कान्ति चन्द्रमाके समान श्वेत है। वह नाना प्रकारको धातुओंसे व्याप्त है। भाँति-भांतिके वृक्ष उसकी शोभा बढ़ाते हैं। गङ्गाजीका शुभ्र एवं पावन जल सब ओरसे उस पर्वतको नहलाता रहता है। वहाँसे सहस्रों विख्यात नदियोंका प्रादुर्भाव हुआ है। उस पर्वत-शिखरपर भगवान् शिवका मन्दिर है, जहाँ कोटिकोटि शिवगण भरे रहते हैं। पिताजी ! एक दिन मैं उसी कैलासपर, जो शङ्करजीका घर है, गया था। वहाँ मुझे एक ऐसा आश्चर्य दिखायी दिया, जो पहले कभी देखने या सुनने में नहीं आया था। मैं उस अद्भुत घटनाका वर्णन करता हूँ, सुनिये। गिरिराज मेरुका पवित्र शिखर महान् अभ्युदयसे युक्त है; वहाँसे हिम और दूधके समान रंगवाला गङ्गानदीका प्रवाह बड़े वेगसे पृथ्वीकी ओर उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। वह कन्या दिव्य रूप गिरता है। वह स्रोत कैलासके शिखरपर पहुँचकर सब और सब प्रकारके शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उसने ओर फैल जाता है। उस जलसे दस योजनका लंबा- दिव्य आभूषण धारण कर रखे थे। उस स्थानपर वह चौड़ा एक भारी तालाब बन गया है, उसे 'गङ्गाहद' बड़ी शोभासम्पन्न दिखायी देती थी। पता नहीं, वह
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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