SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण मुझसे ऐसी बात न कहो। शुभे ! मैं पिताके लिये ही उस मस्तकको देखकर वेदशर्माके चारों भाई काँप यहाँ आया हूँ और उन्हींके लिये तुमसे प्रार्थना करता हूँ। उठे। उन पुण्यात्मा बन्धुओंमें इस प्रकार बात होने इसके विपरीत दूसरी कोई बात न कहो । मेरे पिताजीको लगी-'अहो! धर्म ही जिसका सर्वस्व था, वह हमारी ही स्वीकार करो। देवि ! इसके लिये तुम चराचर माता सत्य समाधिके द्वारा मृत्युको प्राप्त हो गयी। प्राणियोंसहित त्रिलोकीकी जो-जो वस्तु चाहोगी, वह सब हमलोगोंमें ये वेदशर्मा ही परम सौभाग्यशाली थे, निस्सन्देह तुम्हें अर्पण करूँगा। अधिक क्या कहूँ, जिन्होंने पिताके लिये प्राण दे दिये। ये धन्य तो थे ही देवताओंका राज्य आदि भी यदि चाहो तो तुम्हें दे और अधिक धन्य हो गये।' शिवशमनि उस स्त्रीकी बात सकता हूँ।' सुनकर जान लिया कि वेदशर्मा पूर्ण भक्त था। तत्पश्चात् स्त्री बोली-यदि तुम अपने पिताके लिये इस उन्होंने अपने तृतीय पुत्र धर्मशर्मासे कहा-'बेटा ! यह प्रकार दान देनेमें समर्थ हो तो मुझे इन्द्रसहित सम्पूर्ण अपने भाईका मस्तक लो और जिस प्रकार यह जी सके, दवताओंका अभी दर्शन कराओ। वह उपाय करो।' वेदशर्मा बोले-देवि ! मेरा बल, मेरी तपस्याका सूतजी कहते हैं-धर्मशर्मा भाईके मस्तकको प्रभाव देखो। मेरे आवाहन करनेपर ये इन्द्र आदि श्रेष्ठ लेकर तुरंत ही वहाँसे चल दिये। उन्होंने पिताकी भक्ति, देवता यहाँ आ पहुंचे। तपस्या, सत्य और सरलताके बलसे धर्मको आकर्षित देवताओंने वेदशर्मासे कहा- द्विजश्रेष्ठ ! हम किया। उनकी तपस्यासे खिंचकर धर्मराज धर्मशर्माके तुम्हारा कौन-सा कार्य करें?' पास आये और इस प्रकार बोले-'धर्मशर्मन् ! तुम्हारे वेदशर्मा बोले-देवगण ! यदि आपलोग आवाहन करनेसे मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ मुझे अपना मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने पिताके चरणोमे पूर्ण भक्ति कार्य बताओ, मैं उसे निस्सन्देह पूर्ण करूँगा।' प्रदान करें। 'एवमस्तु' कहकर सम्पूर्ण देवता जैसे आये धर्मशर्माने कहा-धर्मराज ! यदि मैंने गुरुकी थे, वैसे लौट गये। तब उस स्त्रीने हर्षमें भरकर कहा- सेवा की हो, यदि मुझमें पिताके प्रति निष्टा और 'तुम्हारी तपस्याका बल देख लिया। देवताओंसे मुझे अविचल तपस्या हो तो इस सत्यके प्रभावसे मेरे भाई कोई काम नहीं है। यदि तुम मुझे मुंहमांगी वस्तु देना वेदशर्मा जी उठे। चाहते हो और अपने पिताके लिये मुझे ले जाना चाहते धर्म बोले-महामते ! मैं तुम्हारी तपस्या और हो तो अपना सिर अपने ही हाथसे काटकर मुझे अर्पण पितृभक्तिसे सन्तुष्ट हूँ, तुम्हारे भाई जी जायेंगे; तुम्हारा कर दो।' कल्याण हो। धर्मवेत्ताओंके लिये जो दुर्लभ है, ऐसा वेदशर्माने कहा-देवि ! आज मैं धन्य हो कोई उत्तम वरदान मुझसे और माँग लो। गया। शुभे ! मैं पिताके लिये अपना मस्तक भी दे दूंगा; धर्मशर्माने जब धर्मका यह उत्तम वचन सुना तो ले लो, ले लो। यह कहकर द्विजश्रेष्ठ वेदशर्माने तीखी उस महायशस्वीने महात्मा वैवस्वतसे कहा-'धर्मराज! धारवाली तेज तलवार उठायी और हँसते-हँसते अपना यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो पिताके चरणोंकी पूजामें मस्तक काटकर उस स्त्रीको दे दिया। खूनमें डूबे हुए उस अविचल भक्ति, धर्ममें अनुराग तथा अन्तमें मोक्षका मस्तकको लेकर वह शिवशर्माके पास गयी। वरदान मुझे दीजिये।' तब धर्मने कहा-'मेरी कपासे स्त्रीने कहा-विप्रवर ! तुम्हारे पुत्र वेदशर्माने मुझे यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा। उनके मुखसे यह तुम्हारी सेवाके लिये यहाँ भेजा है; यह उनका मस्तक है, महावाक्य निकलते ही वेदशर्मा उठकर खड़े हो गये। इसे ग्रहण करो। इसको उन्होंने अपने हाथसे काटकर मानो वे सोतेसे जाग उठे हों। उठते ही महाबुद्धिमान दिया है। वेदशर्माने धर्मशर्मासे कहा-'भाई ! वे देवी कहाँ
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy