SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सृष्टिखण्ड ] • मरुद्रणोंकी उत्पत्ति तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन . . . . . क्रोधवश भीमसेनके हाथसे मारे गये। सुरभिने राक्षसों और यक्षोंको जन्म दिया। भीष्म ! ये सैकड़ों कश्यपजीके अंशसे रुद्रगण, गाय, भैंस तथा सुन्दरी और हजारों कोटियाँ कश्यपजीकी सन्तानोंकी हैं। यह स्त्रियोंको जन्म दिया। मुनिसे मुनियोंका समुदाय तथा स्वारोचिष मन्वन्तरको सृष्टि बतायी गयी है। सबसे अप्सराएँ प्रकट हुई। अरिष्टाने बहुत-से किन्नरों और पीछे दितिने कश्यपजीसे उनचास मरुद्गणोंको उत्पन्न गन्धर्वोको जन्म दिया। इससे तृण, वृक्ष, लताएँ और किया, जो सब-के-सब धर्मके ज्ञाता और देवताओंके झाड़ियाँ-इन सबकी उत्पत्ति हुई। खसाने करोड़ों प्रिय हैं। मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन्! दितिके पुत्र पुत्रकी याचना करती हूँ, जो समृद्धिशाली, अत्यन्त मरुद्रणोंकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? वे देवताओंके प्रिय तेजस्वी तथा समस्त देवताओंका संहार करनेवाला हो।' कैसे हो गये? देवता तो दैत्योंके शत्रु हैं, फिर उनके कश्यपने कहा-'शुभे! मैं तुम्हें इन्द्रका घातक साथ मरुद्गणोंकी मैत्री क्योंकर सम्भव हुई? एवं बलिष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा।' तत्पश्चात् कश्यपने पुलस्त्यजीने कहा-भीष्म ! पहले देवासुर- दितिके उदरमें गर्भ स्थापित किया और कहा-'देवि ! संग्राममें भगवान् श्रीविष्णु और देवताओंके द्वारा अपने तुम्हें सौ वर्षोंतक इसी तपोवनमें रहकर इस गर्भकी पुत्र-पौत्रोंके मारे जानेपर दितिको बड़ा शोक हुआ। वे रक्षाके लिये यत्न करना चाहिये। गर्भिणीको सन्ध्याके आर्त होकर परम उत्तम भूलोकमें आयीं और सरस्वतीके समय भोजन नहीं करना चाहिये तथा वृक्षकी जड़के तटपर पुष्कर नामके शुभ एवं महान् तीर्थमें रहकर पास न तो कभी जाना चाहिये और न ठहरना ही सूर्यदेवकी आराधना करने लगी। उन्होंने बड़ी उग्र चाहिये। वह जलके भीतर न घुसे, सूने घरमें न प्रवेश तपस्या की। दैत्य-माता दिति ऋषियोंके नियमोंका पालन करे । बाँबीपर खड़ी न हो। कभी मनमें उद्वेग न लाये। करतीं और फल खाकर रहती थीं। वे कृच्छ्र-चान्द्रायण सूने घरमें बैठकर नख अथवा राखसे भूमिपर रेखा न आदि कठोर व्रतोंके पालनद्वारा तपस्या करने लगी। जरा खींचे, न तो सदा अलसाकर पड़ी रहे और न अधिक और शोकसे व्याकुल होकर उन्होंने सौ वर्षों से कुछ परिश्रम ही करे, भूसी, कोयले, राख, हड्डी और खपड़ेपर अधिक कालतक तप किया। उसके बाद वसिष्ठ आदि न बैठे। लोगोंसे कलह करना छोड़ दे, अंगड़ाई न ले, महर्षियोंसे पूछा-'मुनिवरो ! क्या कोई ऐसा भी व्रत है, बाल खोलकर खड़ी न हो और कभी भी अपवित्र न जो मेरे पुत्रशोकको नष्ट करनेवाला तथा इहलोक और रहे। उत्तरकी ओर अथवा नीचे सिर करके कभी न परलोकमें भी सौभाग्यरूप फल प्रदान करनेवाला हो? सोये। नंगी होकर, उद्वेगमें पड़कर और बिना पैर धोये यदि हो तो, बताइये।' वसिष्ठ आदि महर्षियोंने ज्येष्ठकी भी शयन करना मना है। अमङ्गलयुक्त वचन मुँहसे न पूर्णिमाका व्रत बताया तथा दितिने भी उस व्रतका निकाले, अधिक हंसी-मजाक भी न करे। गुरुजनोंके साङ्गोपाङ्ग वर्णन सुनकर उसका यथावत् अनुष्ठान साथ सदा आदरका बर्ताव करे, माङ्गलिक कार्योंमें लगी किया। उस व्रतके माहात्म्यसे प्रभावित होकर कश्यपजी रहे, सौषधियोंसे युक्त जलके द्वारा स्रान करे। अपनी बड़ी प्रसन्नताके साथ दितिके आश्रमपर आये। दितिका रक्षाका प्रबन्ध रखे। गुरुजनोंकी सेवा करे और वाणीसे शरीर तपस्यासे कठोर हो गया था। किन्तु कश्यपजीने सबका सत्कार करती रहे। स्वामीके प्रिय और हितमें उन्हें पुनः रूप और लावण्यसे युक्त कर दिया और उनसे तत्पर रहकर सदा प्रसन्नमुखी बनी रहे। किसी भी वर माँगनेका अनुरोध किया। तब दितिने वर मांगते हुए अवस्थामें कभी पतिकी निन्दा न करे।' कहा-'भगवन् ! मैं इन्द्रका वध करनेके लिये एक ऐसे यह कहकर कश्यपजी सब प्राणियोंके देखते-देखते मं प प २
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy