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________________ सृष्टिखण्ड ] . पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पञ्चमहायज्ञ . १७२ AIIMSNE व्यासजी कहते हैं-जगद्गुरु भगवान्के ऐसा विराजमान थे; इसी प्रकार पतिव्रताके घरमें, तुलाधारके कहनेपर द्विजश्रेष्ठ नरोत्तमने फिर इस प्रकार कहा- यहाँ, मित्राद्रोहकके भवनमें तथा इन वैष्णव महात्माके 'नाथ ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अपने मन्दिरमें भी आपका दर्शन हुआ है। इन सब बातोंका स्वरूपका दर्शन कराइये।' तब सम्पूर्ण लोकोंके एकमात्र यथार्थ रहस्य क्या है? मुझपर अनुग्रह करके बताइये।' कर्ता एवं ब्राह्मण-हितैषी भगवान्ने नरोत्तमके प्रेमसे प्रसन्न श्रीभगवान्ने कहा-विप्रवर ! मूक चाण्डाल होकर उस पुण्यकर्मा ब्राह्मणको शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म सदा अपने माता-पितामें भक्ति रखता है। शुभा देवी धारण किये अपने पुरुषोत्तम रूपका दर्शन कराया। उनके पतिव्रता है। तुलाधार सत्यवादी है और सब लोगोंके तेजसे सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा था। ब्राह्मणने प्रति समान भाव रखता है। अद्रोहकने लोभ और कामपर विजय पायी है तथा वैष्णव मेरा अनन्य भक्त है। इन्हीं सद्गुणोंके कारण प्रसन्न होकर मैं इन सबके घरमें सानन्द निवास करता हूँ। मेरे साथ सरस्वती और लक्ष्मी भी इन लोगोंके यहाँ मौजूद रहती हैं। मूक चाण्डाल त्रिभुवनमें सबका कल्याण करनेवाला है। चाण्डाल होनेपर भी वह सदाचारमें स्थित है; इसलिये देवता उसे ब्राह्मण मानते हैं। पुण्य-कर्मद्वारा मूक चाण्डालको समानता करनेवाला इस संसारमें दूसरा कोई नहीं है। वह सदा माता-पिताकी भक्तिमें संलग्न रहता है। उसने [अपनी इस भक्तिके बलसे] तीनों लोकोंको जीत लिया है। उसकी माता-पिताके प्रति भक्ति देखकर मैं बहुत सन्तुष्ट रहता हूँ और इसीलिये उसके घरके भीतर आकाशमें सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्राह्मणरूपसे निवास करता हूँ। इसी प्रकार मैं उस पतिव्रताके, तुलाधारके, अद्रोहकके और इस वैष्णवके घरमें भी सदा निवास करता हूँ। धर्मज्ञ ! एक मुहूर्तके लिये भी मैं इन लोगोंका दण्डकी भाँति धरतीपर गिरकर भगवान्को प्रणाम किया घर नहीं छोड़ता। जो पुण्यात्मा हैं, वे ही मेरा प्रतिदिन और कहा-'जगदीश्वर ! आज मेरा जन्म सफल हुआ; दर्शन पाते हैं; दूसरे पापी मनुष्य नहीं। तुमने अपने आज मेरे नेत्र कल्याणमय हो गये। इस समय मेरे दोनों पुण्यके प्रभावसे और मेरे अनुग्रहके कारण मेरा दर्शन हाथ प्रशस्त हो गये। आज मैं भी धन्य हो गया। मेरे किया है। अब मैं क्रमशः उन महात्माओंके सदाचारका पूर्वज सनातन ब्रह्मलोकको जा रहे हैं। जनार्दन ! आज वर्णन करूँगा, तुम ध्यान देकर सुनो। ऐसे वर्णनोंको आपकी कृपासे मेरे बन्धु-बान्धव आनन्दित हो रहे हैं! सुनकर मनुष्य जन्म और मृत्युके बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो इस समय मेरे सभी मनोरथ सिद्ध हो गये। किन्तु नाथ ! जाता है। देवताओंमें भी, पिता और मातासे बढ़कर तीर्थ मूक चाण्डाल आदि ज्ञानी महात्माओंकी बात सोचकर नहीं है। जिसने माता-पिताकी आराधना की है, वही मुझे बड़ा विस्मय हो रहा है। भला, वे लोग देशान्तरमें पुरुषोंमे श्रेष्ठ है। वह मेरे हृदयमें रहता है और मैं उसके होनेवाले मेरे वृत्तान्तको कैसे जानते हैं ? मूक चाण्डालके हृदयमें । हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं रह जाता । इहलोक घरमें आप अत्यन्त सुन्दर ब्राह्मणका रूप धारण किये और परलोकमें भी वह मेरे ही समान पूज्य है। वह संप.पु. ७
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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