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________________ १७८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण छुटकारा मिल जायगा। लीन होता है। तुम मेरे भक्त और तीर्थस्वरूप हो; किन्तु उनकी बात सुनकर जब ब्राह्मणने देवमन्दिरमें तुमने बगलेकी मृत्युके लिये जो शाप दिया था, उसके प्रवेश किया तो देखा-वे ही विप्ररूपधारी भगवान् दोषसे छुटकारा दिलानेके लिये मैंने ही वहाँ उपस्थित कमलके आसनपर विराजमान हैं। ब्राह्मणने मस्तक होकर कहा कि 'तुम पुण्यवानोंमें श्रेष्ठ और तीर्थस्वरूप झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और बड़ी प्रसन्नताके साथ महात्मा मूक चाण्डालके पास जाओ।' तात ! उस उनके दोनों चरण पकड़कर कहा-'देवेश्वर ! अब महात्माका दर्शन करके तुमने देखा ही था कि वह किस मुझपर प्रसन्न होइये। मैंने पहले आपको नहीं पहचाना प्रकार अपने माता-पिताका पूजन करता था। उन सभी था। प्रभो ! इस लोक और परलोकमें भी मैं आपका महात्माओंके दर्शनसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे किङ्कर बना रहूँ। मधुसूदन ! मुझे अपने ऊपर आपका और मेरा सम्पर्क होनेसे आज तुम मेरे मन्दिरमें आये हो। प्रत्यक्ष अनुग्रह दिखायी दिया है। यदि मुझपर कृपा हो करोड़ों जन्मोंके बाद जिसके पापोंका क्षय होता है, वह तो मैं आपका साक्षात् स्वरूप देखना चाहता हूँ।' धर्मज्ञ पुरुष मेरा दर्शन करता है, जिससे उसे प्रसन्नता भगवान् श्रीविष्णु बोले-भूदेव ! तुम्हारे ऊपर प्राप्त होती है। वत्स ! मेरे ही अनुग्रहसे तुमको मेरा दर्शन मेरा प्रेम सदा ही बना रहता है। मैंने स्नेहवश ही तुम्हें हुआ है। इसलिये तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके पुण्यात्मा महापुरुषोंका दर्शन कराया है। पुण्यवान् अनुसार मुझसे वरदान माँग लो।। महात्माओंके एक बार भी दर्शन, स्पर्श, ध्यान एवं ब्राह्मण बोला-नाथ ! मेरा मन सर्वथा आपके नामोच्चारण करनेसे तथा उनके साथ वार्तालाप करनेसे ही ध्यानमें स्थित रहे, सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी माधव ! मनुष्य अक्षय स्वर्गका सुख भोगता है। महापुरुषोंका आपके सिवा कोई भी दूसरी वस्तु मुझे कभी प्रिय नित्य सङ्ग करनेसे सब पापोंका नाश हो जाता है तथा न लगे। मनुष्य अनन्त सुख भोगकर मेरे स्वरूपमें लीन होता श्रीभगवान्ने कहा-निष्पाप ब्राह्मण ! तुम्हारी है।* जो मनुष्य पुण्य-तीर्थोमें स्नान करके शङ्करजी तथा बुद्धिमें सदा ऐसा उत्तम विचार जाग्रत् रहता है; इसलिये पुण्यात्मा पुरुषोंके आश्रमका दर्शन करता है, वह भी मेरे तुम मेरे धाममें आकर मेरे ही समान दिव्य भोगोंका शरीरमें लीन हो जाता है। एकादशी तिथिको-जो मेरा उपभोग करोगे। किन्तु तुम्हारे माता-पिता तुमसे आदर ही दिन (हरिवासर) है-उपवास करके जो लोगोंके नहीं पा रहे हैं; अतः पहले माता-पिताकी पूजा करो, सामने पुण्यमयी कथा कहता है, वह भी मेरे स्वरूपमें इसके बाद मेरे स्वरूपको प्राप्त हो सकोगे! उनके लीन हो जाता है। मेरे चरित्रका श्रवण करते हुए जो दुःखपूर्ण उच्छ्वास और क्रोधसे तुम्हारी तपस्या प्रतिदिन रात्रिमें जागता है, उसका भी मेरे शरीरमें लय होता है। नष्ट हो रही है। जिस पुत्रके ऊपर सदा ही माता-पिताका विप्रवर ! जो प्रतिदिन ऊँचे स्वरसे गीत गाते और बाजा कोप रहता है, उसको नरकमें पड़नेसे मैं, ब्रह्मा तथा बजाते हुए मेरे नामोंका स्मरण करता है, उसका भी मेरी महादेवजी भी नहीं रोक सकते । इसलिये तुम देहमें लय होता है। जिसका मन तपस्वी, राजा और माता-पिताके पास जाओ और यन्त्रपूर्वक उनकी पूजा गुरुजनोंसे कभी द्रोह नहीं करता, वह भी मेरे स्वरूपमें करो। फिर उन्हींकी कृपासे तुम मेरे पदको प्राप्त होगे। *दर्शनात्स्पर्शनाद्ध्यानात्कीर्तनाद्भाषणात्तथा ।सकृत्पुण्यवतामेव स्वर्ग चाक्षयमश्रुते॥ नित्यमेव तु संसर्गात् सर्वपापक्षयो भवेत् । भुक्त्वा सुखमनन्तं च मद्देहे प्रविलीयते ॥ मिन्युनिपतिते यस्मिन् पुत्रे पित्रोच नित्यशः । तत्रिरय न बाधेऽहं न धाता न च शङ्करः ॥ (४७ । १७८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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