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________________ आठवाँ अध्याय मॉ सन् १९०० मे जब श्रीभगवान् की माँ अपने पुत्र को घर चलने के लिए प्रेरित करने के प्रयत्नो मे असफल होकर वापस लौटी तो कुछ अरसे वाद उनके सबसे बडे पुत्र की मृत्यु हो गयी। दो साल बाद सबसे छोटा पुत्र नागसुन्दरम, जिसकी आयु अभी १७ वप की थी, प्रथम वार अपने स्वामी भाई के दर्शनो के लिए तिरुवन्नामलाई गया । वह उनके दर्शनो से इतना भावविभोर हो उठा कि उसने स्वामी का आलिंगन किया और जोर-जोर से रोने लगा । श्रीभगवान् मौन भाव से स्थिर बैठे रहे । माँ बनारस की तीर्थयात्रा से वापसी के समय थोडे अरसे के लिए वहाँ आयी । सन् १९१४ मे वह तिरुपति स्थित वेंकटरमणस्वामी देवालय की तीर्थयात्रा पर गयी और वापसी पर फिर तिरुवन्नामलाई ठहरी। इस बार वह वहाँ बीमार हो गयी और कई हफ्ते तक टायफायड की भयकर पीडा उसने मही । श्रीभगवान् ने अत्यन्त विनीतभाव से माँ की सेवा-शुश्रूपा की । अपनी माँ की बीमारी के दौरान उन्होने कई पदो की रचना की । यही पद घटना चक्र को प्रभावित करने की उनकी प्रार्थना के एक मात्र ज्ञात उदाहरण है । हे शरणागतो के रक्षक भगवन् 1 आप जन्मो के पुनरावत्तन से मुक्ति दिलाने वाले हैं । आप ही मेरी माँ के ज्वर को ठीक कर सकते हैं । चरण कमलो मे नत - हे मृत्यु से छुटकारा दिलाने वाले भगवन् | मुझे जन्म देने वाली मां के हृदय कमल मे आप प्रकट हो । मैं आपके मस्तक हूँ । आप मेरी माँ की मृत्यु से रक्षा करें। देखा जाय तो मृत्यु कुछ भी नही । अगर सूक्ष्म दृष्टि से ज्ञान के दीप्तिपुज अरुणाचल | मेरी माँ को अपने प्रकाश से आवृत कर दो और उसे अपने साथ एकाकार कर लो। फिर उसके दाह-मस्कार की क्या आवश्यकता है ? भ्रम को निवारण करने वाले अग्णाचल | आप मेरी मां के उन्माद का निवारण करने में विलम्ब क्यों कर रहे हैं ? प्रभो आपके मिवा
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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