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________________ रमण महर्षि डालेंगे । वह वेशक मौनी और तपस्वी का जीवन व्यतीत करें, परन्तु मानमदुरा मे नेल्लियाप्पियर के घर के निकट एक महान् महात्मा के मन्दिर मे रहे । उनकी शान्ति मे बाधा डाले बिना उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति की जाएगी। वकील ने स्वामी से अत्यन्त अनुनय-विनय की, परन्तु कोई परिणाम न निकला। स्वामी निश्चल होकर बैठे रहे मानो उन्होने कुछ सुना ही न हो । नेल्लियाप्पियर के पास अपनी हार मानने के अलावा और कोई चारा न था । उन्होने अलगम्माल को हर्ष और विपाद मिश्रित यह समाचार लिख भेजा कि उनका पुत्र तो मिल गया है, परन्तु अब उसमे महान् परिवर्तन आ गया है और अव वह वापस घर नहीं लौटेगा। तिरुवन्नामलाई मे पांच दिन ठहरने के बाद नेल्लियाप्पियर मानमदुरा वापस आ गये । इसके थोडे समय वाद स्वामी ने आमो का वगीचा छोड दिया और अय्यानकुलम सरोवर के पश्चिम मे स्थित अरुणागिरिनाथार के एक छोटे-से मन्दिर मे चले गये। सेवा के निमित्त दूसरो पर निभर रहने के लिए सदैव अनुत्सुक स्वामी ने पलानीस्वामी द्वारा भोजन की व्यवस्था किये जाने के स्थान पर अब प्रतिदिन स्वय वाहर जाने और भिक्षा मांगने का निणय किया। उन्होने पलानीस्वामी से कहा, "आप भोजन मांगने के लिए एक तरफ जाएँ और मैं दूसरी तरफ जाऊँगा । और हम दोनो अब इकट्ठे नही रहेंगे।" पलानीस्वामी के लिए यह भयकर आघात था । स्वामी के प्रति भक्ति को ही वह अपनी पूजा समझते थे। वह भिक्षा मांगने के लिए स्वामी के आदेशानुसार अकेले गये परन्तु रात होने पर वह वापस अरुणागिरिनाथार के मन्दिर मे आ गये । वह अपने स्वामी के बिना कैसे रह सकते थे ? उन्हे ठहरने की आज्ञा दे दी गयी। स्वामी अब भी मौन धारण किये हुए थे । वह घर की दहलीज मे जाकर खडे हो जाते और ताली बजाते । अगर उन्हे भोजन दिया जाता तो वह इसे अपने हाथो मे ले लेते और सडक पर खडे-खडे खा जाते। अगर उन्हे भोजन के लिए घर आमन्त्रित किया जाता तो वह घर मे कभी भी प्रवेश नहीं करते थे। वह हर रोज दूसरी गली मे जाते और एक ही घर से दो बार भिक्षा नहीं मांगते थे। उन्होने बाद मे कहा कि मैंने तिरुवन्नामलाई की लगभग सभी गलियो मे भिक्षाटन किया था। ____ अरुणागिरिनाथार मन्दिर मे एक महीना ठहरने के बाद उन्होने उस विशाल मन्दिर के एक वुर्ज और अलारी उद्यान मे डेरा जमाया । वह जहां कही भी जाते, भक्तजनो का तांता उनके पीछे लगा रहता। वह वहां केवल एक मप्ताह ठहरे और फिर अरुणाचल की पूर्वी पर्वतमाला पर स्थित पवजहाकुनर गये और वहाँ मन्दिर मे ठहरे । वह यहां पहले की भांति समाधिस्थ होकर बैठते और
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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