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________________ रमण महर्षि और उसके लिए अनुभव कर सकते हैं या कुछ कर सकते है ।" मैंने भगवान् से इस सम्बन्ध में प्रश्न किया और कहा, 'मेरा और यहां विद्यमान अनेक भक्तो का यह निजी अनुभव है कि जब हम अपने किसी कष्ट को बहुत अधिक अनुभव करते हैं, और हम चाहे जहाँ कही हो भगवान् से इस कष्ट निवारण के लिए मानसिक रूप से प्रार्थना करते है, तो हमे तत्क्षण सहायता मिलती है । एक पुरुष भगवान् के पास आता है । वह उनका कोई पुराना भक्त है । वह भगवान् से अन्तिम बार मिलने के समय से लेकर अब तक की कष्ट-कथा उन्हे सुनाता है, भगवान् बडे धैर्य और सहानुभूति से उसकी बात सुनते हैं, बीच-बीच मे आश्चय भी प्रकट करते जाते हैं, 'ओह ! क्या ऐसी वात है ?" और इसी प्रकार के अन्य प्रश्न उससे करते जाते हैं । कथा प्राय इस प्रकार समाप्त होती है 'जब मेरे सव प्रभाव व्यर्थ हो गये तो अन्त मे मैंने भगवान् से प्राथना की और केवल भगवान् ने ही मेरी रक्षा की ।' भगवान् यह सव वडे ध्यान से सुनते हैं और वाद मे आने वाले भक्तो से भी इसकी चर्चा करते है, 'ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की घटनाएँ अमुक व्यक्ति के साथ भी जब वह हमारे साथ था, घटित हुई थी।' हम यह जानते हैं कि भगवान् कभी भी सब कुछ जानने का दावा नही करते इसलिए जो कुछ घटित हुआ है, प्रत्यक्षत वह उससे परिचित नही हैं, जब तक कि उन्हें इस सम्बन्ध में बताया न जाये । साथ ही हम यह भी जानते हैं कि जब हम कष्ट में होते हैं और सहायता के लिए पुकारते है, वह हमारी पुकार सुनते हैं और किसी न किसी रूप मे हमारी सहायता करते है, अगर किसी कारण से यह कष्ट टाला नही जा सकता या इसे कम नही किया जा सकता तो वह हमे इस कष्ट को सहन करने की शक्ति या अन्य सुविधाएँ प्रदान करते हैं । जब मैंने यह बातें भगवान् के सम्मुख रखी तो उन्होने उत्तर दिया, "हाँ, यह सव स्वत होता है । " एक दूसरे भक्त ने इसी विषय पर भगवान् से प्रश्न किया और उन्होंने और अधिक निश्चय के साथ उत्तर दिया, "इतना ही पर्याप्त है कि ज्ञानी का मन किसी ओर प्रेरित हो और देवी क्रिया स्वत प्रारम्भ हो जाती है ।" १७२ श्रीभगवान् स्वेच्छा से अति प्राकृतिक सिद्धियों का प्रयोग बहुत कम करते थे, यदि कभी वह इनका प्रयोग करते तो उनकी दीक्षा और उपदेश की तरह इनका प्रयोग भी गुप्त होता था । भगवान् के भक्तो मे, राजगोपाल ऐय्यर नाम के एक गृहस्थ भी थे। उनके एक पुत्र था, जिसकी आयु लगभग तीन वप की थी । उसका नाम रमण रखा गया था। वह चचल और प्रफुल्लित वालव प्रतिदिन दौड़कर जाता और श्रीभगवान् के आगे दण्डवत् प्रणाम किया करता
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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