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________________ भक्तजन १६६ वेद मत्रो के पाठ के वाद, एक सायकाल एक भक्त ने श्रीभगवान् से कहा, "कल श्री चैडविक भगवान् को एक भेंट देंगे।" । उन्होने पूछा, "ओह ! वह कौनसी भेंट है ?" "वह मौनी वनने जा रहे हैं।" तत्काल ही उन्होने मौन के विरुद्ध भापण दिया और कहा कि वाणी सुरक्षा-कपाटी है और इसके परित्याग की अपेक्षा इसका नियन्त्रण श्रेयस्कर है । उन्होंने उन लोगो की हसी उडायी जो अपनी वाणी से वोलना बन्द कर देते हैं और इसके स्थान पर पेंसिल से बोलने लगते हैं। वास्तविक मौन तो हृदय मे होता है और भापण के मध्य भी मौन रहना उसी प्रकार सम्भव है जिस प्रकार लोगो के वीच एकाकी रहना । कभी-कभी, यह सत्य है कि उनके कथन को बढ़ा-चढाकर प्रकट किया जाता था। एक पूर्व अध्याय में वर्णित उनके उपदेश के गुह्य स्वरूप के अनुसार, श्रीभगवान् स्पष्ट रूप से बहुत कम किसी चीज का आदेश या निषेध करते थे। किसी अमाधारण माग का अवलम्बन करने वाले भक्तो ने उनकी अस्वीकृति को अवश्य अनुभव किया होगा, हालांकि उन्होंने स्वय इसे स्वीकार नही किया। उन्होने हमेशा ही सभा-भवन से अनुपस्थित रहना शुरू कर दिया। मुझे इस प्रकार का एक प्रसग स्मरण है। जव एक भक्त महिला का मानसिक सन्तुलन विक्षुब्ध हो गया था, श्रीभगवान् ने स्पष्टत कहा था "वह मेरे पास क्यो नही आती ?" उनके कथन की महत्ता को हृदयगम करने के लिए हमे यह ध्यान भी रखना होगा कि वह स्पष्ट आदेश देने या किसी को आने या जाने के लिए कहने के सम्बन्ध मे अत्यन्त सतक थे। अगर कोई उहें ऐसा करने का प्रयत्न करता तो वह वही चतुराई से इसका प्रतिकार कर देते थे। उनकी इच्छा का सकेत मात्र ही अत्यन्त मूल्यवान समझा जाता था । ऊपर जिस महिला-भक्त का वणन किया गया है, वह उनके पास नही आयी और कुछ काल के बाद उसका मन अस्थिर हो गया। यही एकमात्र उदाहरण नही था । श्रीभगवान् से नि सृत उद्दाम शक्तिपुज इतना शक्तिशाली था कि इसे सहन करना कठिन था। ऐसा देखने में आता है कि इस प्रकार के उदाहरण मे ज्योही व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन जाता रहता, व्यक्ति एकान्त मे रहना वन्द कर देता और पुन आश्रम में आना शुरू कर देता । यह भी देखने में आता कि श्रीभगवान् कभी-कभी ऐसे व्यक्ति को शरारती लड़के की तरह भत्सना करते जो किसी ऐसे काय में आसक्त हो गया था, जिमका उसे प्रतिरोध करना चाहिए था और जिसका वह प्रतिरोध कर सकता था । बहुत से उदाहरणो मे, उनके प्रभाव के कारण व्यक्ति का संग्राम गुरू हो जाता और वह पुन' मामा य अवस्था मे लौट आता ।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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