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________________ १५८ रमण महर्षि पहले अपने सच्चे स्वरूप का पता लगाओ फिर आप ससार के वास्तविक स्वरूप को समझ सकेंगे। ___ हमे इस वात का ध्यान रखना चाहिए कि इस अन्तिम वाक्य मे श्रीभगवान् 'अपने' शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, जिसका अर्थ अह से है और जिसे प्रश्नकर्ता अपने पर आरोपित कर रहा है । वास्तविक आत्मा मसार का भाग नही है बल्कि परमात्मा और सृष्टिकर्ता का भाग है। ___ जीवन की गतिविधियो मे आत्म-अन्वेषण के प्रयोग के लिए आदेश का अथ, इसके परम्परागत प्रयोग का विस्तार और हमारे युग की आवश्यकताओ के प्रति समायोजन था। चिन्तन के रूप मे अपने प्रत्यक्ष प्रयोग से यह साधना का शुद्धतम और सर्वाधिक प्राचीन रूप है। यद्यपि श्रीभगवान को यह स्वत स्फूति तथा अनुपदिष्ट रूप मे प्राप्त हुआ तथापि यह प्राचीन ऋपियो की परम्परा मे है । ऋषि वसिष्ठ ने लिखा है " 'मैं कौन हूँ' यह अन्वेषण आत्मा की तलाश है और वह अग्नि है जो धारणा सम्बन्धी विचार की विषाक्त वृद्धि के बीज को जला देती है।" पहले यह विशुद्ध ज्ञान-माग के रूप मे था, यह सबसे सरल तथा सबसे महान था, यह अन्तिम रहस्य या जो केवल विशुद्ध प्रज्ञावानो को दिया जाता था और वे ससार की चिन्ताओ से परे निरन्तर चिन्तन मे जिसका अनुसरण करते थे। दूसरी ओर कम माग उनके लिए था जो ससार मे रहते थे और भगवद्गीता के अनुसार कर्मों के फल मे आसक्त हुए विना, नि स्वाथ भाव से, अहकार-रहित होकर दूसरो की सेवा करते थे। इन दो मार्गों के मिलन से एक नये मार्ग का निर्माण किया गया है, जो हमारे युग की नयी परिस्थितियो के अनुरूप है। आश्रम या कन्दरा की तरह कार्यालय या वकशाप मे वाध्य कमकाण्ड का आप चाहे पालन करें या न करें, मौन भाव से इस माग का अनुसरण किया जा सकता है। इसके लिए आपको चिन्तन के लिए कुछ समय निकालना होगा और फिर दिन भर स्मरण करना होगा। सैद्धान्तिक रूप से, अन्तिम और अत्यन्त गुह्य माग की खुली घोपणा और हमारे युग के साथ इसके समायोजन द्वारा ईमामसीह के इस कथन की कि 'अन्त मे गुप्त रहस्य का उद्घाटन हो जाएगा' पुष्टि हो जाती है। यही श्रीभगवान् ने किया था। वस्तुत यह नया मार्ग ज्ञान माग और भक्ति माग के मिलन से कुछ अधिक है । यह भक्ति भी है क्योकि यह शुद्ध प्रेम की सृष्टि करता है-आत्मा और आन्तरिक गुरु के लिए प्रेम, जो कि भगवान का प्रेम है, परमात्मा का प्रेम है । श्रीभगवान ने महर्षीज गॉस्पल मे कहा है “शाश्वत, अग्वण्ड तथा प्राकृतिक रूप से आत्मलीनता की अवस्था ज्ञान है । आत्मलीनता के लिए आपको आत्मा मे प्रेम करना होगा । चूंकि भगवान् वस्तुत आत्मा हैं, इसलिए
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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