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________________ ११८ रमण महर्षि खाने-पीने की चीजो मे बहुत रस लेते होगे, परन्तु इस सब देख-भाल के वावजूद वह भोजन के प्रति विलकुल उदासीन थे। कभी-कभी जव वह देखते कि उनके अपने भोजन की ओर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है तो वह मीठे-खट्टे और नमकीन सभी खाद्य-पदार्थों को मिला देते और यह कहते हुए खाते "आपको विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है परन्तु ज्ञानी के लिए केवल एकता है।" अगर उन्हें दूसरो की अपेक्षा अधिक मात्रा मे या कोई अच्छी चीज दी जाती तो वह इसके लिए उत्तरदायी व्यक्ति के प्रति क्रुद्ध होते । भोज्य पदार्थों को व्यथ न करने के लिए वह पहले दिन के बचे हुए भोजन को गरम करते, इसमे कोई सुगन्ध मिलाते या इसे कोई अन्य रूप देने का यत्न करते । यह ब्राह्मणो के कट्टर नियमो के विरुद्ध है और इसलिए रसोई के महायक इसका पता लगाने के लिए प्रात काल भगवान् से भी पहले आने लगे । भगवान् उनसे भी पहले उठ जाते और रसोई मे उनसे पहले पहुंच जाते । फिर ये मूर्ख लोग, यह न जानते हुए कि भगवान् का स्पश सर्वोच्च शुद्धि है, इस प्रकार के भोजन की शुद्धि के लिए शुद्धि-सस्कार करते थे। यह भी एक कारण था, जिसने भगवान् को रसोई में जाने से विलकुल रोक दिया। इस बीच एक और भी घटना घटी । उन्होने आदेश दिया था कि सब्जियो के छिलके फेके न जाएं बल्कि पशुओ को दिये जाएं और उनके आदेश के बावजूद ये फेंक दिये गये । जो भी कारण हो, उन्होने रसोई के काम से अपना हाथ खीच लिया था क्योकि वे वृद्ध और दुर्वल होते जा रहे थे। इसके अतिरिक्त इतने अधिक आगन्तुक और भक्त उनके निकट आते थे कि रसोई में समय देने का अभिप्राय उनकी उपेक्षा होता। निर्माण तथा आयोजन और अथ-व्यवस्था के काय के लिए आश्रम को एक प्रबन्धक की आवश्यकता थी क्योकि श्रीभगवान् इनमे से कोई भी कार्य स्वय नही करते थे । आश्रम के सगठन की दिशा मे कई प्रयास किये गये परन्तु यह मब असफल रहे । अन्त मे श्रीभगवान् से अपने भाई निरजनानन्द स्वामी को आश्रम का सर्वाधिकारी बनाने के लिए कहा गया। उन्होने इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। भगवान् के जीवन-पयन्त यह प्रवन्ध जारी रहा। आश्रम के प्रवन्ध मे बहुत-सी श्रुटियां थी, और इसके सम्बन्ध मे अनेक शिकायतें भी की गयी । परन्तु इसके वावजूद आश्रम समृद्धि के पथ पर था और यह नितान्त स्वच्छ, नियमित तथा सुसचालित था । आश्रम-जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिए नियम बनाये गये। कुछ नियम भक्तो के लिए कप्ट साध्य थे। अगर कोई भक्त इन नियमो का विरोध या इनके विरुद्ध विद्रोह करना चाहता तो श्रीभगवान् का आदर्श उदाहरण उन्हें ऐसा करने से रोवता । वह स्वय प्रत्येक नियम का पालन करते और सत्ता का आदर करते थे। उनका यह दृढ़ मत
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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