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________________ ११४ रमण महर्षि केवल उसका श्रीभगवान् के प्रति असाधारण अनुराग था बल्कि उसके प्रति उनकी अनुकम्पा और दयालुता बिलकुल अपवाद स्वरूप थीं। वाद के वर्षों मे आश्रम मे कई गाय और बैल आये परन्तु किसी का भी भगवान् के प्रति इतना अनुराग नहीं था और न किसी ने श्रीभगवान् की इतनी अनुकम्पा प्राप्त की । लक्ष्मी के वशज अब भी वहाँ हैं । १७ जून, १९४८ को लक्ष्मी बीमार हो गयी और १८ जून की प्रात काल ऐसा प्रतीत हुआ कि उसका अत निकट है। १० बजे श्रीभगवान् उसके निकट गये । उन्होने कहा, "माता लो मैं आ गया ।" वह उसके पास बैठ गये और उन्होंने उसका सिर अपनी गोद मे रख लिया। उन्होने उसकी आँखो मे झांका और अपना हाथ उसके सिर तथा हृदय पर रखा मानो उसे दीक्षा दे रहे हो। उसकी गालो को अपनी गालो से लगाते हुए उन्होने उसे पुचकारा । जव उन्हे यह सतोप हो गया कि उसका हृदय पवित्र है और सब वासनाओ से मुक्त है तथा भगवान पर केन्द्रित है, उन्होने उससे विदा ली। वह भोजन के लिए खाने के कमरे की ओर चले गये । लक्ष्मी अत तक सचेत थी, उसकी आँखें शान्त थी। साढे ग्यारह बजे शान्त भाव से उसकी इहलीला समाप्त हुई। आश्रम के महाते मे एक हरिण, एक कोए, और एक कुत्ते की कबरो के पास, जो कि श्रीभगवान् के आदेश से वहां दबाये गये थे, उसे अत्येष्टि सस्कार के साथ दफनाया गया । एक चौकोर पत्थर उसकी कन पर लगाया गया। पत्थर पर श्रीभगवान् का यह मृत्युलेख उत्कीर्ण किया गया कि उसने मुक्ति प्राप्त कर ली है । देवराज मुदालियर ने श्रीभगवान् से पूछा था कि क्या यह रस्मी तौर पर उत्कीण किया गया है, जैसे कि किसी व्यक्ति के देहावसान पर हम कहते हैं कि उसने समाधि प्राप्त कर ली है, या इसका यह अर्थ है कि उसने वस्तुत मुक्ति प्राप्त कर ली है। इस पर श्रीगवान् ने उत्तर दिया कि उसने वस्तुत मुक्ति प्राप्त कर ली है।
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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