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________________ कुछ प्रारम्भिक भक्त क्या उसकी इच्छाएं पूर्ण हो जायेंगी। श्रीभगवान् का तुरन्त तथा सूक्ष्म परिहास उनके इस उत्तर में परिलक्षित होता है, “अगर योगी को अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए योग-साधन करते हुए, ज्ञान-लाम हो जाय, तो वह अनुचित रूप से हर्पित नहीं होगा, भले ही उसकी इच्छाओ की पूर्ति हो जाय।" __ सन् १६३६ के लगभग गणपति शास्त्री अपने अनुयायियो के माथ स्त्रहगपुर के निकट नीमपुरा के गांव मे वस गये। इसके दो वप बाद से लेकर मृत्युपयन्त वे पूणत तपश्चर्या में लीन रहे। शास्त्रीजी की मृत्यु के बाद, जव एक बार श्रीभगवान् से यह प्रश्न किया गया कि क्या शास्त्रीजी को अपने जीवन मे आत्म-साक्षात्कार हो गया था, तब उन्होंने उत्तर दिया, "उन्हें आत्मसाक्षात्कार कैसे हो सकता था ? उनके सकल्प अत्यन्त प्रवल थे।" । एफ० एच० हम्फ्रीज श्रीभगवान के प्रथम पाश्चात्य भक्त मन् १९११ मे भारत आने से पूर्व रहस्यमयी सिद्धियो से परिचित थे। उनकी आयु उस समय केवल २१ वप की थी। वे वैल्लोर मे पुलिस सेवा मे एक उच्च पद पर थे। उन्होने तेलुगु सीखने के लिए नरसिंहय्या नामक एक शिक्षक रखा । प्रथम पाठ के समय ही उन्होंने अपने शिक्षक से यह प्रश्न किया कि क्या वे उनके लिए हिन्दू ज्योतिष पर अग्रेजी मे लिखी कोई पुस्तक ला सकेंगे। यह एक अप्रेज की वडी विचित्र प्रार्थना थी, परन्तु नरसिंहय्या ने इसे स्वीकार कर लिया और उन्हें पुस्तकालय से एक पुस्तक लाकर दे दी। अगले दिन हम्फ्रीज़ ने एक और आश्चर्यजनक प्रश्न पूछा, "क्या आप यहां किसी महात्मा को जानते हैं ?" नरसिंहय्या ने मक्षेप मे निषेधात्मक उत्तर दिया। परन्तु इस निषेध के कारण नरसिहैय्या देर तक परेशानी से नहीं बचे रह सके क्योकि हम्फ्रीज़ ने अगले दिन कहा, "क्या आपने कल मुझसे कहा था कि आप किसी महात्मा को नहीं जानते ? परन्तु आज सवेरे जैसे ही मेरी आँख खुली मैंने आपके गुरु को देखा। वह मेरे निक्ट वैठ गये। उन्होने मुझसे कुछ कहा जो मैं नही समझ सका।" धूनि नरसिंहय्या को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था, हम्फी ने अपना कथन जारी रखते हुए कहा, "वैल्लौर के लिए प्रथम व्यक्ति को मैं बम्बई में मिला, वह तुम ही थे ।" नसिंहैय्या ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि वह कभी बम्बई गया ही नही। परन्तु हम्फ्रीज़ ने उसे समझाते हुए कहा, "जमे ही मैं बम्बई पहुंचा, मुझे उच्च ज्वर की अवस्था में अस्पताल ले जाया गया । पीडा से छुटकारा पाने के लिए मैंने वैल्लोर का ध्यान किया । अगर मैं बीमार न पहता तो मुझे बम्बई मे उत्तरते ही तुरन्त वेल्लोर के लिए प्रस्थान करना था। मैंने अपने सूक्ष्म प्रारीर मे वैल्लोर को यात्रा की और वहाँ तुम्हे देखा।"
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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