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________________ कुछ प्रारम्भिक भक्त नाम तत्काल ही प्रयोग में आने लगा और इसी प्रकार महर्षि की उपाधि भी। भाषण और लेखन में बहुत अरसे तक उन्हें 'महपि' के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा । धीरे-धीरे उनके भक्तजन उन्हे “भगवान्' के नाम मे सम्बोधित करने ल जिसका अथ है 'दिव्य' या 'प्रभु'। वह स्वय प्राय अवैयक्तिक रूप से बात करते थे और 'मैं' के प्रयोग से बचते थे। उदाहरण के लिए, वह वस्तुत यह नहीं कहा करते थे, "मैं नहीं जानता कि कव सूय उदय हुआ या कव अस्त हुआ" जैसा कि पांचवें अध्याय मे उद्धृत किया गया है, बल्कि वह यह कहा करते थे, "कौन जानता है कव सूय उदय हुआ या कव अस्त हुआ ?" कभी-कभी वह अपने शरीर की ओर भी 'यह' कहकर निर्देश किया करते थे। फेवल वह वक्तव्य देते समय जिसमे 'भगवान्' शब्द होता, वह 'भगवान्' कहा करते और प्रथम पुरुष मे बात करते । उदाहरण के लिए, जब मेरी पुत्री वापस म्कूल जा रही थी और उनसे यह कहा गया कि जब वह दूर रहे, तो उसे याद रखें, तब उनका उत्तर था, "अगर किट्री भगवान को याद रखेगी तो भगवान् भी किट्टी को याद रखेंगे।" गणपति शास्त्री श्रीभगवान् को भगवान सुब्रह्मण्यम का अवतार समझते थे, परन्तु भगवान् के भक्तो ने यह मानने से इन्कार कर दिया, क्योकि उनका ऐसा अनुभव था कि श्रीभगवान् को किसी विशेष दिव्य रूप का अवतार समझना असीम को मीमा में बांधना है। श्रीभगवान ने इस ऐकात्म्य का समर्थन नही किया। एक बार एक भक्त ने उनमे कहा, "अगर भगवान् सुब्रह्मण्यम् का अवतार हैं, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, तो वह हमारे अटकलवाजी लगाने के बजाय स्पष्ट रूप से इसकी घोषणा क्यो नही करते।" उन्होने उत्तर दिया, "अवतार क्या है ? अवतार भगवान के एक पक्ष की अभिव्यक्ति है, जबकि ज्ञानी स्वय भगवान है।" श्रीभगवान् से मिलने के एक वर्ष बाद गणपति शास्त्री ने भगवान् की अपार अनुकम्पा का अनुभव किया। जब वह तिरुवोथियुर में गणपति के मन्दिर मे ध्यानावस्था मे बैठे थे, वह व्यग्र हो उठे। उनके मन मे श्रीभगवान् का सान्निध्य और मार्ग-दशन प्राप्त करने की उत्कट इच्छा पैदा हुई । उसी क्षण श्रीभगवान् ने मन्दिर में प्रवेश किया। गणपति शास्त्री उनके सम्मुख दण्डवत् लेट गये और जैसे ही वह उठने लगे उन्होंने अपने सिर पर श्रीभगवान् के हाथ के स्पश का अनुभव किया। इस स्पर्श से उनके समस्त शरीर मे अजस्र भाक्ति को धारा प्रवाहित होने लगी । इस प्रकार उन्होने गुरु से स्पर्श के माध्यम से अनुकम्पा का प्रसाद प्राप्त किया। __ वाद के वर्षों में इस घटना की चर्चा करते हुए श्रीभगवान् ने कहा, "एक दिन, कुछ वर्ष पूर्व, मैं नीचे लेटा हुमा था और जाग रहा था । मैंने स्पष्ट रूप
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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