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________________ १२ रमण महर्षि कान्त' की उपाधि से, जिसका पहले निर्देश किया जा चुका है, सम्मानित किया गया। १९०३ मे वह तिरुवन्नामलाई आये और उन्होने पहाडी पर दो वार ब्राह्मण स्वामी के दर्शन किये। कुछ समय के लिए उन्होने वैल्लोर मे, जहां तिरुवन्नामलाई से कुछ घण्टे की रेल-यात्रा के बाद पहुंचते थे, स्कूलअध्यापक का काय किया। यहां उनके वहुत-से शिष्य बन गये । इन शिष्यो ने मन्त्रो के प्रयोग से शक्ति का इतना विकाम किया था कि इसका सूक्ष्म प्रभाव अगर समस्त मानव-जाति मे नही तो सम्पूण राष्ट्र में व्याप्त हो जाता और उसे उन्नति की ओर ले जाता। शिक्षक के पद पर वह देर तक नहीं रह सके। १६०६ तक वह फिर तिरुवन्नामलाई वापस चले आये। परन्तु अव उनके मन मे सन्देह पैदा होने लगे। अब वह अधेड हो चले थे। अपनी अद्भुत प्रतिभा, प्रकाण्ड पाडित्य तथा मन्त्रो और तप के कारण न उन्हे भगवत्-भक्ति के क्षेत्र मे मफलता मिली और न सासारिक क्षेत्र मे। उन्हें ऐसा अनुभव हुआ कि वह एक निष्प्राण लक्ष्य के निकट पहुँच चुके थे । कार्तिकेय-उत्सव के नौवें दिन उन्होंने एकाएक पहाडी पर रहने वाले स्वामी को स्मरण किया। निस्सन्देह उन्हे उत्तर मिलेगा। ज्योही उनके मन में यह भावना उठी उन्होने इस पर आचरण किया । मध्याह्न के सूय की गरमी मे उन्होने विरूपाक्ष कन्दरा की ओर पहाडी पर चढना शुरू किया। स्वामी अकेले कन्दरा के वगमदे मे बैठे हुए थे । शास्त्री उनके सामने नत हो गये और उन्होने उनके चरण पकड लिये । भावावेश के कारण कांपती हुई आवाज मे उन्होंने कहा, "जो कुछ अध्ययन करना चाहिए, वह सब मैंने अध्ययन कर लिया है, वेदान्तशास्त्र में भी में पारगत हो गया है, मैंने हार्दिक भाव मे जप भी किया है परन्तु अब तक मैं यह नही समन पाया कि तप क्या है। इसलिए मैं आपको शरण में आया हूँ। मुझे तप के स्वरूप से परिचित कराइए।" स्वामी पन्द्रह मिनट तक मौनभाव से शास्त्री की ओर देखते रह और फिर उन्होंने उत्तर दिया, “अगर कोई यह निरीक्षण करे कि 'मैं' का विचार कहाँ से उत्पन्न होता है, तो मन उसमे निमग्न हो जाता है, वहीं तप है। मन्योच्चारण के समय अगर कोई उम स्रोत को देखता है, जहाँ मे मन्त्र-स्वनि उत्पन्न होती है, तो मन उसमें निमग्न हो जाता है, वही तप है।" __स्वामी वे गन्दा मे शास्त्री इतने आनन्दिन नहीं हुए जितने उनकी अनुनम्पा से । उन्होन स्वामी के उपदेश के सम्बन्ध में अपने मियो को ओजस्विनी भापा मे लिग्वा और मम्कृत श्लोका में उनकी प्रशस्ति की। उन्ह पलानी न्यामी में पता चला कि स्वामी या नाम वेक्टरमण है। उन्होन यह पापणा यो नि अब से उन्हे भगवान् श्रीरमण और महर्षि के नाम से पुकारा जायगा। रमण
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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