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________________ कुछ प्रारम्भिक भक्त अगले प्रात काल अपने साथी अध्यापक जे० वी० सुब्रह्मण्यम् के साथ मुदालियर शेषाद्रिस्वामी की खोज में निकल पडे । वहुत छानवीन करने के वाद उन्होंने उन्हें देख लिया और मुदालियर को यह देखकर बहुत सन्तोष तथा आश्चय हुआ कि शेपाद्रिस्वामी स्वयं उनकी तरफ आ रहे हैं। उन्हे यात्रा का प्रयोजन बताने की कोई आवश्यकता नही पडी, उन्होने मुदालियर से कहा, "मेरे बच्चे, तुम क्यो दुखी और चिन्तित होते हो ? ज्ञान क्या है 7 जब मन एक के बाद दूसरी वस्तु को क्षणिक और अवास्तविक समझकर उसका निषेध करता चला जाता है, तब इस निषेध के वाद जो वस्तु अन्त मे बच रहती है, उसे ज्ञान कहते हैं । वही भगवान् है । प्रत्येक वस्तु वही है और केवल वही है । ज्ञान की प्राप्ति केवल पहाडी या कन्दरा मे जाने में हो सकती है, इस विश्वास के साथ इधर-उधर भटकते रहना मूखता है । निर्भय होकर जाओ ।" इस प्रकार उन्होंने भगवान् के शब्दों में उनका उपदेश दिया । मह इस शुभ शकुन से हर्षोद्वेलित होकर वह स्कन्दाश्रम आने वाली पहाडी पर चल पडे । दोपहर को वह वहाँ पहुँचे । पाँच-छ घण्टे तक मुदालियर श्रीभगवान् के सम्मुख बैठे रहे, परन्तु उनमे कोई वार्तालाप नही हुआ । इसके बाद सायकालीन भोजन का समय हो गया और श्रीभगवान् उठ खडे हुए । जे० वी० एस० ऐय्यर ने उनसे कहा, "यही वह व्यक्ति है जिसने उन्हे वह पत्र लिखे थे ।" इस पर श्रीभगवान् ने नटेश की ओर स्थिर दृष्टि मे देखा और वह बिना कुछ बोले बाहर चले गये । हर महीने मुदालियर एक दिन के लिए वहाँ आते और श्रीभगवान् के सम्मुख मौनभाव से प्राथना करते हुए बैठते, परन्तु वह उनसे कभी नही बोले और न ही नटेश ने पहले बोलने का प्रयास किया । इस प्रकार पूरा वप व्यतीत हो गया । अब नटेश और सहन नहीं कर सके और अन्त मे उन्होंने कहा, "मैं यह जानना और अनुभव करना चाहता हूँ, कि आपकी अनुकम्पा क्या है, क्योकि लोग इसका भिन्न-भिन्न रूप मे वणन करते हैं ।" श्रीभगवान् ने उत्तर दिया “मैं सदा अपनी अनुकम्पा का दान कर रहा हूँ | अगर यह तुम्हारी समझ मे नही माती, तो मैं क्या करूँ ?" अब भी मुदालियर की समझ मे मौन उपदेश नहीं आया, उन्हें अब भी ज्ञान नही हो रहा था कि वह किस भाग का अनुसरण करें। थोडी देर बाद श्रीभगवान् स्वप्न मे उनके सम्मुख प्रकट हुए और उनसे वोले, "अपनी दृष्टि सम रखें और इसे बाह्य तथा आन्तरिक दोनो ओर से हटा लें । इस प्रकार, जैसे-जैसे भेद दूर होते जायेंगे, आप प्रगति करते जायेंगे ।" मुदालियर ने यह समझकर वि श्रीभगवान् का तात्पर्य भौतिक दृष्टि से है, उनसे कहा, "मुझे यह समुचित माग प्रतीत नही होता । अगर आप जैसा महापुरुष इस प्रकार
SR No.034101
Book TitleRaman Maharshi Evam Aatm Gyan Ka Marg
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAathar Aasyon
PublisherShivlal Agarwal and Company
Publication Year1967
Total Pages230
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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