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________________ और यही कारण है कि तुम मेरे साथ सदा झंझट में महसूस करते रहते हो। तुम चाहोगे कि मैं चम्मच से निवाला तुम्हारे मुंह में रख दूं ताकि तुम्हें कुछ भी न करना पड़े। मुझे ही सब कुछ करना चाहिए। चबाना और सब कुछ और मुझे तुम्हें चम्मच से खिलाना चाहिए। यह में नहीं करने वाला हूं क्योंकि यही तो दूसरों ने तुम्हारे साथ किया है और तुम्हें नष्ट कर दिया है। मैं तुम्हें प्रेम करता हू। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं तुम्हें अत्यंत प्रेम करता हू मेरे लिए ऐसा कर पाना असंभव है। मैं तुम्हें उत्तरदायी, अपने जीवन का दायित्व स्वयं सम्हालने वाला बनाना चाहता हूं। तुम अपने जीवन का दायित्व कब सम्हालोगे? तुम बच्चे नहीं हो, तुम असहाय नहीं हो। मेरी सहायता तो तुम्हें इसी प्रकार से मिलेगी, तुमको बस तुम बना कर तुमको उस दिशा की ओर गतिशील करने में सहायक होकर, जो तुम्हारी नियति है। प्रश्न: आपने व्यक्ति भीतर सूर्य और चंद्र सम्मिलन और उसके पार जाने को कहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपने से बाहर का जीवन-साथी होना उसके महत्व से कहीं ज्यादा उलझाव और पीड़ादायक है। जीवन साथी होना या न होना किस प्रकार से व्यक्ति की अंतर उन्मुखता और आध्यात्मिक विकास को बढाता या घटता है, कृपाया इसे स्पष्ट करें। प्रश्न उलझाव का नहीं है। प्रश्न अनुभव की समृद्धि का है। यह तो उलझाव भरा ही होगा। तुम संग-साथ अकेले उलझन में हो, जब कोई पुरुष मित्र या महिला मित्र, 'किसी पुरुष या स्त्री से तुम्ह हो जाता है, तो निःसंदेह दो उलझे हुए व्यक्ति साथ-साथ हो जाते हैं। और यह कोई सामान्य जोड़ नहीं है, यह तो गुणा हो जाने वाला है। चीजें निश्चित रूप से उलझ जाती हैं। लेकिन उसी जटिलता के द्वारा ही तुम्हें राह खोजनी है। यह एक चुनौती है। वह प्रत्येक स्त्री या पुरुष जिनसे तुम्हारा संपर्क होता है एक महान चुनौती है। तुम इन चुनौतियों से बच सकते हो यही तो महात्मागण सदा से करते आ रहे हैं संसार से पलायन, चुनौती से बच निकलना । निःसंदेह तुम अधिक स्थिरता, शांति अनुभव करोगे, तुम्हारा जीवन उलझन भरा नहीं होगा, किंतु तुम बहुत निर्धन होगे। और जब मैं कहता हूं निर्धन तो मेरा अभिप्राय है कि तुम अत्यंत अनुभवहीन अपरिपक्व होंगे। क्योंकि तुम परिपक्वता कहां से पा लोगे? जीवन जो समृद्धि और अनुभव लाता है वे तुम्हें कहां से मिल जाएंगे? और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है इसे खरीदा नहीं जा सकता, इसे उधार नहीं लिया जा —
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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