SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनंददायी, इतना महान वरदान है कि तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि इससे श्रेष्ठ भी संभव है। तुम वहा रुक जाना पसंद करोगे। पतंजलि कहते हैं. 'बोधपूर्ण बने रहो।' इसीलिए वे इसको बादल कहते हैं। यह तुमको अंधा कर आवकता है, इसमें खो सकते हो तुम। यदि तुम इस बादल का अतिक्रमण कर सको-ततः कलेशकर्मनिवृत्ति-तब कलेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है। यदि तुम धर्ममेघ समाधि का अतिक्रमण कर सको, यदि तुम इस स्वर्ग सी अवस्था का, जन्नत का अतिक्रमण कर सको, केवल तभी.. .क्लेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है। अन्यथा तुम पुन: संसार में वापस गिर जाओगे। छोटे बच्चे सांप और सीढ़ी का खेल खेलते हैं, क्या तुमने इसे देखा है? सीढ़ियों से वे ऊपर उठते चले जाते हैं और सांपों के दवारा वे वापस लौटते रहते हैं। यदि वे निन्यानबे के बाद सौ की गिनती एं तो वे विजयी हो जाते हैं, उन्होंने खेल जीत लिया है। लेकिन निन्यानबे के खाने पर एक सांप है। यदि तुम निन्यानबे पर पहुंच जाते हो तभी अचानक तुम वापस संसार में वापस लौट आते हो। धर्ममेघ समाधि निन्यानबेवां खाना है, लेकिन वहीं पर सांप है। इससे पहले कि सांप तुमको पकड़ ले तुमको सौवें खाने पर छलांग लगानी पड़ती है। केवल तभी वहां घर वापसी हो पाती है। तुम घर वापस आ गए हो, वर्तुल पूर्ण हो गया है। 'तब क्लेशों एवं कर्मों से मुक्ति हो जाती है।' 'जब सभी आवरण, विकृतियां और अशुद्धियां हट जाती हैं, तब वह सभी कुछ जो मन से जाना जा सकता है, समाधि से प्राप्त असीम ज्ञान की तुलना में अत्यल्प हो जाता है।' अभी कुछ सूत्र पहले ही पतंजलि ने कहा था, कि मन अनंत ज्ञानवान है, मन अनंत ज्ञान अर्जित कर सकता है। अब वे कहते हैं कि वह जो मन से जाना जा सकता है, उस असीम शन की तुलना में अत्यल्प है जो समाधि से प्राप्त होता है। जैसे-जैसे तुम उच्चतर की ओर बढ़ते हो प्रत्येक अवस्था उस पहली अवस्था से विराटतर होतीहै जिसका तुमने अतिक्रमण कर लिया है। जब व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियो में खोया हुआ होता है तो उसका मन पंगु ढंग से कार्य करता है। जब व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों में नहीं उलझा होता है और शरीर से आसक्त नहीं रहता तो उसका मन पूर्णत: स्वस्थ ढंग से कार्य करना आरंभ कर देता है। मन के लिए एक असीम समझ घटित हो जाती है, यह अनंतताओं को जानने में समर्थ हो जाता है। लेकिन यह भी उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है जब मन को पूरी तरह छोड़ दिया जाता है और तुम मन के बिना कार्य करना आरंभ कर देते हो। अब किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं रहती। सारे अवरोध खो जाते हैं, और तुम वास्तविकता के समक्ष होते हो। वहां पर मन भी एक मध्यस्थ की
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy