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________________ वह पादरी भी उसकी तर्कयुक्त बात को नकार न सका। हां, 'शैतान के अतिरिक्त इतना बड़ा शत्रु और कौन होगा? पहली बार उसने इस बात को समझा, लेकिन फिर भी वह स्वयं को मरते हुए शैतान की सहायता हेतु तैयार नहीं कर पाया। उसने कहा, तुम ठीक जानते हो, लेकिन मैं जानता हूं कि शैतान शास्त्रों के उद्धरण दे सकता है। तुम मुझको मूर्ख नहीं बना सकते। यह अच्छा है कि तुम मर रहे हो। यह बहत अच्छा है, यदि तम मर जाओ तो संसार बेहतर हो जाएगा। शैतान हंसा, एक बहत शैतानी हंसी हंसा और उसने कहा, तुम नहीं जानते, यदि मैं मरता हूं तो तुम कहीं के न रहोगे। तुमको भी मेरे साथ मरना पडेगा। और इस समय मैं शास्त्रों का हवाला नहीं दे रहा हूं मैं व्यवसाय की बात कर रहा हूं। मेरे बिना तुम्हारा क्या होगा, और तुम्हारा चर्च और तुम्हारा ईश्वर? अचानक वह पुजारी सारी बात समझ गया। उसने शैतान को अपने कंधों पर उठाया और वह उसे लेकर अस्पताल चला गया। उसको जाना पड़ा, क्योंकि शैतान के बिना ईश्वर का भी अस्तित्व नहीं हो सकता। पापी के बिना महात्मा बच नहीं सकता। वे एक-दूसरे से पोषित होते हैं, वे एक-दूसरे की रक्षा करते हैं, वे एक-दूसरे का बचाव करते हैं। वे दो विभिन्न लोग नहीं हैं, वे एक ही घटना के दो ध्रुव हैं। मौलिक मन मन नहीं है। यह न तो पापी का मन है और न साधु का मन है। मौलिक मन में कोई मन नहीं है। इसकी न कोई परिभाषा है, न कोई सीमा। यह इतना शुद्ध है कि तुम इसे शुद्ध भी नहीं कह सकते क्योंकि किसी वस्तु को शुद्ध कहने के लिए तुमको अशुद्धता की अवधारणा को बीच में लाना पड़ेगा। वह धारणा तक इसे प्रदूषित कर देगी। इतना शुद्ध है यह, इतना आत्यंतिक रूप से शुदध है यह कि यह कहने में कि यह शुदध है कोई सार न रहा। 'केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।' अब 'तत्र ध्यानजम' ' ध्यान से जन्मा हुआ' यह शाब्दिक अनुवाद है, लेकिन इसमें कुछ खो रहा है। संस्कृत बहुत काव्यात्मक भाषा है। यह मात्र एक भाषा नहीं है, यह मात्र एक व्याकरण नहीं है उससे भी अधिक एक काव्य है, एक बहुत घनीभूत काव्य। यदि इसका ठीक से अनुवाद किया जाए, व का अनवाद किया जाए, केवल शब्द नहीं, तो मैं इसका अनवाद करूंगा 'जिसका ध्यान से पुनर्जन्म होता है। बस केवल जन्म नहीं, क्योंकि मौलिक मन का जन्म नहीं होता, यह पहले से ही विदयमान है, बस पुनर्जन्म, यह पहले से वहां है, बस प्रत्यभिज्ञा होती है, यह पहले से ही वहां है, बस पुन: अन्वेषण होता है। परमात्मा सदैव एक पुन: अन्वेषण है। तुम्हारा स्वयं का अस्तित्व पहले से वहां है। इस पर कोई बहुत अधिक ताकत नहीं लगानी है, यह पहले से ही वहां है, तुम्हें इसको पुन: उपलब्ध करना है। नया कुछ भी नहीं जन्मा है, क्योंकि मौलिक मन नया नहीं है, यह पुराना नहीं है, यह शाश्वत है, सदा और सदैव और सदा के लिए। 'अनाशयम्' का अभिप्राय है. बिना किसी प्रेरणा के, बिना किसी सहारे के, बिना किसी कारण के बिना किसी वजह के।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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