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________________ यही है जो मौलिक मन है, विचार के किसी स्पंदन के बिना; दृष्टि में कोई बादल नहीं, तुम्हारे चारों ओर कोई धूल नहीं-बस शुद्ध आकाश। तत्र ध्यानजमनाशयम। 'केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है। क्योंकि मौलिक मन अतीत से मुक्त है, अनुभवों से मुक्त है। जब तुम अनुभवों से मुक्त हो तो तुम इच्छा कैसे कर सकते हो? इच्छा अतीत के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकती। जरा सोचो, यदि तुम्हारा कोई अतीत न हो, तुम इच्छा कैसे कर सकते हो? तुम क्या इच्छा करोगे? कुछ चाहने के लिए अनुभव संचित अनुभव की आवश्यकता होती है। यदि तुम इच्छा न कर सको तो तुम एक शून्य में होओगे आत्यंतिक सुंदर खालीपन। केवल मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है, इसलिए इच्छाओं के साथ संघर्ष मत करो। यह संघर्ष तुम्हें कहीं नहीं ले जाएगा, क्योंकि इच्छाओं से संघर्ष करने के लिए तुम्हें प्रतिइच्छाएं निर्मित करनी पड़ेगी। और वे भी उतनी ही इच्छाएं हैं जैसी कि दूसरी इच्छाएं। इच्छाओं से संघर्ष मत करो, तथ्य को देखो। इच्छाओं से संघर्ष करने के माध्यम से मौलिक मन नहीं पाया जा सकता। तुम्हें एक श्रेष्ठ मन मिल सकता है, लेकिन मौलिक मन नहीं मिल सकता। हो सकता है कि तुम्हारे पास एक पापी का मन हो, और यदि तुम इसके साथ संघर्ष करो तो तुमको साधु का मन मिल सकता है, लेकिन एक साधु उलटे खड़े हुए असाधु के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पापी और महात्मा भिन्न व्यक्तित्व नहीं हैं, वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम सिक्के को एक ओर से दूसरी ओर पलट सकते हो। एक पापी किसी भी क्षण साधु बन सकता है और साधु किसी भी क्षण पापी बन सकता है। और पापी सदैव साधु होने के स्वप्न देखा करता है और साधु सदैव पाप की कीचड़ में पुन: वापस गिरने से भयभीत रहता है। वे अलग नहीं हैं, उनका अस्तित्व साथ-साथ है। वास्तव में यदि संसार से सभी पापी मिट जाएं तो साधुओं के हो पाने की भी कोई संभावना न रहेगी। वे पापियों के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते। मैने सुना है, एक पादरी अपने गिरजाघर की ओर जा रहा था, रास्ते में सड़क के किनारे उसने एक आदमी को देखा जो बुरी तरह घायल था, करीब-करीब मृतप्राय: था। खून बह रहा था। वह दौडा गया, लेकिन जैसे ही वह उसके पास पहुंचा और उस व्यक्ति का चेहरा देखा, वह वापस लौट पड़ा। उसका चेहरा वह अच्छी तरह पहचानता था। वह आदमी और कोई नहीं स्वयं शैतान था। अपने चर्च में उसने शैतान की तस्वीर लगा रखी थी, लेकिन शैतान ने कहा, मुझ पर करुणा करो। और तुम करुणा के बारे में बोलते हो, और तुम प्रेम के बारे में बोला करते हो, और क्या तुम भूल गए? अपने चर्च में अनेक बार तुम उपदेश दिया करते हो, अपने शत्रु को प्रेम करो, मैं तुम्हारा शत्रु हूं मुझको प्रेम करो।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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