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________________ 'केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।' यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूत्रों में से एक है। पहली बात, मौलिक मन क्या है? क्योंकि प्रत्येक प्रकार के योग का चरम लक्ष्य मौलिक मन ही है। पूर्व लगातार मौलिक मन का रास्ता खोजता रहा है। मौलिक मन वह मन है जो तुम्हारे पास तुम्हारे जन्म से पूर्व था, न केवल इस जीवन में, बल्कि उससे भी पहले जब तुम इच्छाओं के संसार में प्रविष्ट हुए थे, बल्कि उससे भी पहले जब तुम विचारों, इच्छाओं, मूल प्रवृत्तियों, शरीर, मन में सीमित हो गए 1. थे वह मौलिक अंतराल, किसी भी वस्तु द्वारा अप्रदूषित, वह मौलिक आकाश, बादलों से शून्य वही है मौलिक मन । उस मॉलिक मन पर मनों की अनेक पर्ते होती हैं। मनुष्य की अवस्था प्याज के समान है, इसे तुम छीलते चले जाते हो। तुम एक पर्त छील देते हो, दूसरी पर्त वहां होती है, तुम उस पर्त को छील देते हो, एक और पर्त दिखाई पड़ती है तुम्हारे पास एक मन नहीं है, तुम्हारे पास अनेक मनों की पर्त दर पर्त हैं। क्योंकि प्रत्येक जीवन में तुमने एक निश्चित मन निर्मित किया है, फिर दूसरे जीवन में एक और मन, और इसी भांति अनेक मन बन चुके हैं और इन मनों के पीछे, इन पर्ती दर पर्तों के पीछे मौलिक मन पूरी तरह खो चुका है। किंतु यदि तुम प्याज को छीलते चले जाओ तब एक क्षण आता है जब तुम्हारे हाथों में केवल खालीपन बच रहता है प्याज खो चुका होता है। जब सारे मन खो जाते है तभी मौलिक मन का उदय होता है। वस्तुतः इसे मन कहना उचित नहीं है, लेकिन इसको अभिव्यक्त करने का कोई और उपाय नहीं है। यह अ-मन है। मौलिक मन अ-मन है जब वे सभी मन जो तुम्हारे पास हैं विलीन हो जाते हैं, तिरोहित हो जाते हैं, तब मौलिक मन अपनी प्राथमिक शुद्धता, अपने कुंवारेपन के साथ प्रकट होता है। यह मौलिक मन तुम्हारे पास पहले से ही है। शायद तुम इसे भूल चुके हो। तुम अपने मन की संस्कारिताओं में खो सकते हो, लेकिन गहरे में इन सभी पर्तों के परे तुम अभी भी अपने मौलिक मन में जीया करते हो और किन्हीं दुर्लभ क्षणों में तुम इसमें डुबकी लगा लेते हो। गहरी नींद में जब स्वप्न भी मिट चुके हैं, स्वप्न रहित निद्रा मैं तुम मौलिक मन में डुबकी लगा लेते हो। यही कारण है कि प्रातःकाल तुम इतनी ताजगी अनुभव करते हो। किंतु यदि पूरी रात भर स्वप्नों का सातत्य चलता रहा हो, तो तुम्हें थकान अनुभव होती है। तुम उससे भी अधिक थकान अनुभव करते हो जितनी तुम्हें सोने से पहले थी। तुम अपने अंतस की गंगा में, अपनी शुद्ध चेतना की धारा में डुबकी नहीं लगा पाए हो। तुम इसमें जा नहीं सके हो, तुम इसमें स्नान नहीं कर पाए हो तब प्रातःकाल में तुम स्वयं को थका हुआ, चिंतित, संशयग्रस्त, खंडित पाते हो। तुम्हारे पास वह लयबद्धता नहीं होती जो गहन निद्रा से आती है। लेकिन यह लयबद्धता
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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