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________________ एक बार हारून रशीद ने एक कविता लिखी। अब प्रत्येक व्यक्ति ने इसकी प्रशंसा की, प्रत्येक व्यक्ति को इसकी प्रशंसा करनी पड़ी। यह बस एक मूर्खता थी। और जब उसने दरबार में बोल्लुल से पूछा, उसने कहा, यह निरी मूर्खता है, हुजूर, मुझ जैसा मूर्ख भी इस जैसी कविता नहीं लिखेगा। निःसंदेह हारून रशीद बहुत क्रोधित हो गया। बोल्लुल को कारागार में डाल दिया गया, और उसे पीटा गया और उसे भूखा रहने को बाध्य किया गया। सात दिन बाद फिर उसको दरबार में लाया गया। हारुन रशीद ने एक और कविता लिखी थी, और यह कविता पहली से कहीं अधिक परिष्कृत थी। और सारे दरबार ने कहा, वाह, वाह, पुनः बोल्लुल से पूछा गया। उसने कविता को देखा, उसने सुना और तुरंत उठ कर खड़ा हो गया और जाने लगा। सुलान ने पूछा, तुम कहां जा रहे हो? वह बोला, कारागार। मैं फिर वहीं जा रहा हूं। मैं आपको मुझे कारागृह भेजने की तकलीफ नहीं दूंगा। इसकी जरूरत ही क्या है? वह वास्तव में बुद्धिमान व्यक्ति था। यही विडंबना है कि अनेक बार बुद्धिमान व्यक्ति को खुद को मूर्ख की भांति प्रकट करना पड़ता है। याद रखो, स्वतंत्र होने का प्रयास बहुत मूर्खतापूर्ण है। और यह संभव नहीं है; असंभव है यह । तब तुम और-और हताश हो जाओगे, क्योंकि हमेशा तुम पाओगे कि तुम पुनः निर्भर हो, पुनः अर्त्वित हो। जहां कहीं तुम जाओगे तुम निर्भर रहोगे, क्योंकि तुम अस्तित्व के जाल से बाहर नहीं निकल सकते। हम एक जाल की गांठों की तरह हैं - हमसे होकर ऊर्जाएं बहती रहती हैं। जब बहुत सारी ऊर्जाएं एक बिंदु से होकर गुजरती हैं वह बिंदु विशिष्टता बन जाता है, यही है सारी बात कागज पर रेखा खींचो, फिर इसके आर-पार एक और रेखा खींचो जहां ये दोनों रेखाएं एक-दूसरे को काटती हैं, विशिष्टता बन जाती हैं। जहां जीवन और मृत्यु एक-दूसरे को काटते हैं, वहीं तुम हो, मात्र एक उभयनिष्ट बिंदु | इसको समझ लेना ही सब कुछ है। फिर न तुम पर निर्भर हो, न तुम आत्मनिर्भर हो, दोनों असंगतियां हैं। फिर तुम बस परस्पर निर्भर होते हो, और तुम स्वीकार कर लेते हो। 'यदि ऐसा है तो व्यक्ति को दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा, और उन सांसारिक वस्तुओं पर जिनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है।' किसने कहा तुमसे कि उनको निश्चित रूप से आगे चल कर बंधन बन जाना है? या तो तुम जानते हो या नहीं जानते। यदि तुम्हें पता है तो मुझसे पूछने में कोई सार नहीं; तुम उस बंधन में नहीं पडोगे। यदि तुम नहीं जानते और तुमने इस बात को बस दूसरों से सुन रखा है, तो यह मदद देने वाला नहीं है। तुम संकट में पड़ोगे । तुम सदा आधे हृदय से जीते रहोगे क्योंकि यह तुम्हारी समझ नहीं है, और केवल तुम्हारी समझ तुम्हें मुक्त कर सकती है।
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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