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________________ गुलाब एक गुलाब है, एक गुलाब ही है-जीवन और अधिक जीवन के लिए जीता है, और अधिक जीवन फिर और अधिक जीवन के लिए जीता है। लेकिन उसमें कोई बाह्य मूल्य नहीं है, तुम 'क्यों' का उत्तर नहीं दे सकते। और तुम इस बात को समझ सकते हो. यदि तुम 'क्यों' का उत्तर दे सके, फिर दुबारा प्रश्न खड़ा हो जाएगा। यदि तुम कहो, जीवन का अस्तित्व परमात्मा के लिए है, तो परमात्मा का अस्तित्व किसलिए है? उसके होने का क्या उददेश्य है? और जब इस पूछताछ को कहीं जाकर रुकना ही है, तो पहले इसको शुरू ही क्यों किया जाए? तुम कहते हो, 'परमात्मा ने जीवन का सृजन किया? फिर परमात्मा का सृजन किसने किया?' नहीं, मैं ऐसा नहीं कहता। मैं कहता हं परमात्मा जीवन है। उसने जीवन का सृजन नहीं किया है, वही जीवन है। इसलिए यदि तुम नास्तिक हो तो मेरे साथ कोई समस्या नहीं है। हूं.....तुम 'परमात्मा' शब्द को छोड़ सकते हो। यह केवल भाषागत प्रश्न है। यदि तुम्हें 'परमात्मा' शब्द पसंद हो, अच्छी बात है। यदि तुम्हें पसंद नहीं है, बहुत अच्छी बात है।'जीवन' से काम चल जाएगा। क्योंकि मैं शब्दों के बारे में चिंता नहीं करता। मैं शब्दों के बारे में तर्क नहीं करता। परम सत्य को तुम किस नाम से पुकारते हो, किसे चिंता है? जीवन, परमात्मा, अल्लाह, राम, कृष्ण-या तुम्हारी कल्पना को जो आकृष्ट करे-जिहोवा, ताओ, ये सभी शब्द हैं, किसी ऐसे सूक्ष्म की ओर संकेत कर रहे हैं कि उसकी अभिव्यक्ति असंभव है। लेकिन यदि तुम मुझसे पूछो, 'जीवन' अत्याधिक सुंदर प्रतीत होता है यह।'ईश्वर' के साथ ही तुम्हें किसी प्रकार के चर्च की बू आती है, और दुर्गंध है यह, यह अच्छी नहीं है।'जीवन' के साथ तत्कण, पुष्प, वृक्ष, पक्षी...। क्या तुमने अपने मन के प्रतिसंवेदन, प्रतिक्रिया का निरीक्षण किया है? मैं कहता हूं 'ईश्वर' सुनते ही तुम्हारे मन में कैथेडूल्स, मनुष्य निर्मित चीजें–पादरी, पोप उभर आते हैं। निःसंदेह बड़ा नाटकीय है यह, लेकिन थोड़ा सा असंगत भी है-उनके लंबे सजावटी चोगे, मुकुट और पाखंड। मैं कहता हू 'जीवन' कोई कैथेड्रल, कोई मंदिर तुम्हारी चेतना में नहीं उभरता है। प्रवाहित होती नदियां, खिलते हुए फूल, गाते हुए पक्षी, चमकता हुआ सूर्य, हंसते और दौड़ते हुए बच्चे, प्रेम करते हुए लोग, यह आकाश, यह पृथ्वी।'जीवन' वास्तव में और सुदर, कम भ्रष्ट है। यह पादरियों के हाथों में नहीं पड़ा है, वे इसके सौंदर्य को नष्ट और भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सके हैं। वे अभी इसको आकार देने के लिए काट-छांट नहीं कर सके हैं, यह अभी भी कृत्रिम न हो सका है। जीवन प्राकृतिक रहा है। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि यही तो परमात्मा है : परम प्राकृतिक। कभी मत पूछो जीवन क्यों है, क्योंकि उत्तर कौन देने जा रहा है? जीवन के अतिरिक्त कुछ और है भी नहीं। और यह मत सोचो कि जब कोई उददेश्य होगा तो ही तुम्हें जीना होगा, अन्यथा तुम कैसे जी सकोगे? मुझे नहीं दीखती है यह बात। फूल खिलते हैं, वे किसी 'क्यों' को नहीं जानते हैं, और वे सुंदरतापूर्वक
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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