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________________ जाते हैं, क्योंकि जीवन का कोई भी लक्षण दिखाई दिया और वे जान जाते हैं कि हम इससे चूक गए, हम इस तक नहीं पहुंच पाए। धर्म असफलताओं के लिए नहीं है। यह उनके लिए है जो जीवन में सफल हए हैं, जिन्होंने जीवन को इसके गहनतम तल तक, इसे इसकी गहराई और ऊंचाई तक, समस्त आयामों में जीया है, और जो इस अनुभव से इतना अधिक समृद्ध हो गए हैं कि वे इसका अतिक्रमण करने को तैयार हैं, ये लोग कभी जीवन-विरोधी नहीं होंगे वे जीवन को स्वीकार करने वाले होंगे। वे कहेंगे, जीवन दिव्य है। वस्तुत: वे कहेंगे, 'परमात्मा के बारे में सब कुछ भूल जाओ, जीवन परमात्मा है।' वे प्रेम के विरोध में नहीं होंगे क्योंकि प्रेम जीवन का परम रस है। वे कहेंगे, 'प्रेम परमात्मा के दिव्य शरीर में संचारित होते हए रक्त की भांति है। जीवन के लिए प्रेम ठीक ऐसा ही है जैसा कि तुम्हारे शरीर के लिए रक्त। वे इसके विरोध में कैसे हो सकते हैं?' यदि तुम प्रेम-विरोधी हो जाओ तो तुम सिकुडने लगोगे। वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति विस्तीर्ण होता है, फैलता चला जाता है। यह चेतना का फैलना है, सिकुड़ना नहीं। भारत में हमने परम सत्य को ब्रह्म कहा है।'ब्रह्म' शब्द का अर्थ है : जो विस्तीर्ण होता चला जाता है, आगे और आगे, और आगे, और इसका कोई अंत नहीं है। यह शब्द है इसमें एक गहन अर्थवत्ता है। आगे बढता हुआ विस्तार-जीवन, प्रेम, चेतना का यह अनंत फैलाव, यही तो है परमात्मा। सावधान रहो, क्योंकि जीवन-निषेधक धर्म बहुत सस्ता है; तुम्हें यह बस ऊब जाने से ही मिल सकता है। यह बहुत सस्ता है, क्योंकि यह तुमको बस असफल होने से ही, बस असृजनात्मक होने से ही, बस आलसी, निराश, उदास होने से मिल सकता है। यह वास्तव में सस्ता है। लेकिन असली धर्म प्रमाणिक धर्म बड़ी कीमत पर मिलता है; तुम्हें जीवन में स्वयं को ही देना होगा। तुम्हें मूल्य चुकाना पड़ेगा। इसे अर्जित किया जाता है, और इसे कठिन पथ से अर्जित किया जाता है। व्यक्ति को जीवन से होकर गुजरना पड़ता है-इसकी उदासी, इसकी प्रसन्नता जानने के लिए; इसकी असफलता, इसकी सफलता जानने के लिए; धप के दिन और बादलों का मौसम जानने के लिए; गरीबी और अमीरी जानने के लिए; प्रेम को और घृणा को जानने के लिए; जीवन की गहनतम चट्टानी तलहटी नरक को छू पाने के लिए और ऊपर उड़ान भर कर उच्चतम शिखर स्वर्ग को स्पर्श कर पाने के लिए जीवन में से होकर जाना पड़ता है। व्यक्ति को सभी आयामों में, सभी दिशाओं में गति करनी पड़ती है, कुछ भी ढंका हआ नहीं रहना चाहिए। धर्म है अनावृत करना, यह जीवन से आवरण हटाना है। और निःसंदेह पीड़ा इसका हिस्सा है। कभी भी केवल हर्ष की भाषा में मत सोचो, अन्यथा शीघ्र ही तम जीवन से बाहर, इसके संपर्क से परे हो जाओगे। जीवन हर्ष और विषाद दोनों है। वास्तव में बेहतर तो यही होगा कि हम इसको हर्ष-विषाद कहें, इनके बीच और तक अच्छा नहीं लगता, क्योंकि यह बांटता है। हर्ष-विषाद, स्वर्ग-नरक, दिन-रात, सर्दी-गर्मी, प्रभु-शैतान-जीवन विपरीत ध्रुवीयताओं का परम
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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