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________________ अब देवदूत परेशानी में पड़ गए। उन्होंने आपस में विचार-विमर्श किया और इस योजना को सुनिश्चित कर दिया। फकीर की छाया भले ही उससे पीछे पड़े या किसी एक ओर पड़े, जिस ओर भी पड़ेगी उस को रोग-मुक्त करने की, दर्द को मिटाने की और पीड़ा को हरने की क्षमता प्रदान कर दी गई, जिससे कि वह इसे जान ही न सके। जब भी वह फकीर रास्ते से गुजरता, उसकी छाया या तो उसके एक तरफ पड़ती या पीछे पड़ती तो उससे सूखे रास्ते हरियाली से भर जाते, इधर उधर के वृक्ष पुष्पित हो जाते, सूखे जल स्रोतों में पानी की स्वच्छ धार बहने लगती, बच्चों के मुरझाए हुए चेहरे खिल उठते, और दुखी स्त्री-पुरुष हर्षित हो उठते। लेकिन वह फकीर तो बस अपने दैनिक जीवन में वैसे ही सदगुणों को बिखेरता रहा-जैसे कि सितारे प्रकाश और फूल सुगंध बिखेरते हैं, उसे पता ही न लगता। लोग उसकी विनम्रता का सम्मान करते हुए शांतिपूर्वक उसके पीछे चलते, वे उससे कभी उसके चमत्कारों का उल्लेख भी न करते। जल्दी ही वे उसका नाम भी भूल गए और उन्होंने उसको 'पवित्र छाया' नाम दे दिया। यही है अंतिम बात, व्यक्ति को पवित्र छाया, परमात्मा की छाया मात्र बन जाना पड़ेगा। केंद्र का स्थानांतरित हो जाना ही वह बड़ी से बड़ी क्रांति है, जो किसी व्यक्ति के साथ घट सकती है। अब तुम अपने केंद्र न रहे, परमात्मा तुम्हारा केंद्र बन जाता है। तुम उसकी छाया की भांति जीते हो। तुम शक्तिशाली नहीं हो, क्योंकि तुम्हारे पास शक्तिशाली होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तुम सदगुणी नहीं हो, तुम्हारे पास सदगुणी होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तुम तो धार्मिक भी नहीं हो, तुम्हारे पास होने के लिए कोई केंद्र नहीं है। तम तो बस नहीं हो, एक विराट रिक्तता है, जिसमें कोई भी व्यवधान था अवरोध नहीं, जिससे कि परमात्मा तुम्हारे भीतर से बिना अवरोध के, अस्पर्शित, अनिर्वचनीय प्रवाहित हो सके-ताकि दिव्यता तुम्हारे भीतर से जैसी वह है, वैसी नहीं जैसी तुम्हारी अभिलाषा है कि उसे होना चाहिए, प्रवाहित हो सके। वह तुम्हारे केंद्र से होकर नहीं गुजरता है, कोई केंद्र है ही नहीं। केंद्र खोया हुआ है। इस सूत्र का यही अर्थ है कि अंतिम रूप से तुम्हें अपने केंद्र का भी बलिदान करना पडेगा जिससे कि तुम पुन: अहंकार की भांति न सोच सको तुम 'मैं' न बोल सको, अपने आपको पूर्णत: विनष्ट करना है, अपने आपको पूर्णत: मिटा डालना है। तुम्हारा कुछ भी नहीं है बल्कि इसके विपरीत तुम ही परमात्मा के हो। तुम पवित्र छाया बन जाते हो। इसकी कल्पना भी कठिन है क्योंकि अनुपयोगी कूड़े-कबाड़ तक से अनासक्त हो पाना भी कठिन बात है। तुम इस आशा में इकट्ठा करते चले जाते हो कि जो कुछ तुम एकत्रित करते हो तुम्हें परितृप्त कर सकता है। तुम शान, धन, शक्ति, प्रतिष्ठा एकत्रित किए चले जाते हो। तुम तो बस संचय करते जाते हो। तुम्हारा सारा जीवन भरने में लगता है। और निःसंदेह अगर तुम एक मुर्दा बोझ बन
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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