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________________ मन भी पूरी तरह अंतस का हिस्सा नहीं है। शरीर की अपेक्षा वह जरूर अंतस का है। अगर व्यक्ति साक्षी हो जाए, तो फिर वह भी बाहर का हिस्सा हो जाता है, तब स्वयं के विचारों को देखा जा सकता है। और जब कोई अपने ही विचारों को देख सकता हो, तो विचार भी बाहर के हिस्से हो जाते हैं। तब विचार विषय होते हैं, और वह देखने वाला द्रष्टा होता है। निर्बीज समाधि का अर्थ होता है कि अब कोई जन्म नहीं होगा, कि अब संसार में फिर लौटना न होगा, कि अब फिर से समय –काल में प्रवेश नहीं होगा। निर्बीज का अर्थ होता है इच्छाओं और कामनाओं के बीज का पूरी तरह से दग्ध हो जाना। यहां तक कि जब कोई योग की ओर आकर्षित होता है, या भीतर की ओर यात्रा प्रारंभ करता है, तो वह भी एक तरह की आकांक्षा ही होती है -स्वयं को प्राप्त करने की आकांक्षा, शांति की आकांक्षा, आनंद प्राप्ति की आकांक्षा, सत्य को पाने की आकांक्षा–ये भी आकांक्षाएं ही हैं। जब पहली बार समाधि की उपलब्धि होती है - धारणा और ध्यान के बाद जब समाधि की प्राप्ति हो जाती है, जहां विषय और विषयी एक हो जाते हैं, वहां भी आकांक्षा की हल्की सी छाया मौजूद रहती ही है -सत्य को जानने की आकांक्षा, सत्य के साथ एक हो जाने की आकांक्षा, परमात्मा का साक्षात्कार करने की आकांक्षा, या कोई भी नाम इस आकांक्षा को दे सकते हो, फिर भी वह होती आकांक्षा ही है, चाहे वह बहुत सूक्ष्म, अदृश्य ही क्यों न हो, लेकिन फिर भी वह मौजूद होती है। क्योंकि पूरे जीवन उसके साथ रहते आए हो, इसलिए वह होगी ही। लेकिन अंत में उस आकांक्षा को भी गिरा देना है। अंत में तो समाधि को भी छोड़ देना होता है। जब ध्यान पूर्ण हो जाता है, तो ध्यान को भी छोड़ देना होता है तब ध्यान को भी छोड़ा जा सकता है। और जब ध्यान जीवन-शैली हो जाता है तो उसको करने की जरूरत नहीं रहती है, तब ध्यान भी छूट जाता है, तब कहीं जाने की कोई जरूरत नहीं रहती है -न तो बाहर जाने की और न ही भीतर आने की-जब बाहर और भीतर की सभी यात्राएं समाप्त हो जाती हैं, तब सभी तरह की इच्छा, आकांक्षा, वासना भी छुट जाती है। आकांक्षा ही बीज है। पहले वह बाहर की तरफ ले जाती है, फिर अगर कोई व्यक्ति समझदार है, बदधिमान है, तो उसे यह समझ आते देर नहीं लगती है कि वह गलत दिशा की ओर बढ़ रहा है। तब वही आकांक्षा उसे भीतर की तरफ मोड़ देती है, लेकिन फिर भी आकांक्षा किसी न किसी रूप में मौजूद रहती ही है। वही आकांक्षा जो बाहर निराशा और हताशा का अनुभव करती है, भीतर की खोज प्रारंभ कर देती है। इसलिए जड़ को ही काट देना, आकांक्षा को ही गिरा देना। यहां तक कि समाधि के बाद, समाधि को भी गिरा देना होता है। तब जाकर निर्बीज समाधि फलित होती है। निर्बीज समाधि चरम अवस्था है। वह इसीलिए उपलब्ध नहीं होती है कि तुमने उसकी आकांक्षा की है, क्योंकि अगर उसकी आकांक्षा की तो फिर वह निर्बीज न रहेगी। इसको थोड़ा समझ लेना। जब आकांक्षा मात्र की व्यर्थता और निरर्थकता दिखाई दे जाती है -यहां तक कि भीतर जाने
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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