SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 422
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आंखों को और परिष्कृत करके ऐसी चीजें देखी जा सकती हैं, जिन्हें साधारणतया नहीं देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, आंखें अंतशरीर को एक्सरे की भांति ही देख सकती हैं। अगर एक्सरे दवारा उसे देखा जा सकता है तो आख से भी उसे देखा जा सकता है, बस आंखों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है। और एक तरह से वे ठीक भी हैं। अंतर्बोध इंद्रियों से पार या बाहर की बात नहीं है; वह इंद्रियों का ही सूक्ष्म रूप है। प्रतिभा इंद्रियातीत है, इंद्रियों के पार है -उसमें किसी प्रकार की कोई संवेदना नहीं होती है, वह सीधी या प्रत्यक्ष होती है, प्रतिभा में इंद्रिया गिर चुकी होती हैं। यह योग की दृष्टि है, कि व्यक्ति अपने भीतर सर्वज्ञाता है –सर्वज्ञान व्यक्ति का वास्तविक स्वभाव ही है। असल में तो हम सोचते हैं कि हम आंखों के दवारा देखते हैं, योग का कहना है कि तुम आंखों दद्वारा नहीं देखते हो -तुम्हारी आंखें ही तुम्हें धोखा देती हैं। इसे थोड़ा समझ लें। तुम एक कमरे में खड़े होकर एक छोटे से छेद में से बाहर देख रहे हो। निस्संदेह, कमरे में रहते समय तो यह अनुभव होता है कि वह छोटा सा छेद तुम्हें बाहर के जगत की कुछ खबर दे रहा है। तुम उसी छोटे से छेद को सब कुछ समझकर उसी पर केंद्रित हो सकते हो। ऐसा भी सोच सकते हो कि इस छोटे से छेद के बिना बाहर देखना असंभव होगा। योग का कहना है कि तब तुम एक भ्रांति में पड़ रहे हो। इस छेद से देखा जा सकता है, लेकिन यह छेद ही देखने का कारण नहीं है –देखना तुम्हारी गुणवत्ता है। तुम छेद से देख रहे हो, छेद स्वयं नहीं देख रहा है। तुम्हीं द्रष्टा हो। आंखों के द्वारा जगत को देखा जा सकता है, आंखों से तुम मुझे देख रहे हो। आंखें शरीर में छेद की तरह हैं, लेकिन भीतर तुम द्रष्टा हो। अगर शरीर के बाहर आकर देख सको, तो ठीक वैसा ही होगा जैसा कि अगर द्वार खोलकर बाहर आ जाओ तो तुम अपने को विराट आकाश के नीचे खड़ा हुआ पाओगे। वह तुम ऐसा नहीं है कि होल के, सुराख के गायब होने से तुम अंधे हो जाओगे या तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा। सच तो यह है तब तुम्हें अहसास होगा, तब तुम समझोगे कि सुराख तुम्हें अंधा बना रहा था। हैं बहत ही सीमित दृष्टि दे रहा था। और जब संपर्ण खले आकाश के नीचे खड़े होंगे, तो संपर्ण अस्तित्व को एक अलग ही दृष्टि से देख सकते हो। अब दृष्टि सीमित नहीं रह जाएगी, किन्हीं सीमित दायरों में बंधी हुई नहीं रह जाएगी, क्योंकि अब आंखें किसी छोटे से छेद से या खिड़की से नहीं देख रही हैं। अब तुम आकाश के नीचे खड़े होकर चारों ओर देख सकते हो। यही तो योग की दृष्टि है, और ठीक भी है। शरीर में जो इंद्रियां हैं, वह और कुछ नहीं केवल छोटे - छोटे सुराख हैं कानों से सुना जा सकता है, आंखों से देखा जा सकता है, जीभ से स्वाद लिया जा सकता है, नाक से सूंघा जा सकता है –यह छोटे -छोटे सुराख हैं, होल्स हैं और व्यक्ति उनके पीछे छिपा हुआ है। योग का कहना है, इनके बाहर आ जाओ, इनसे बाहर निकल आओ, इनके पार चले
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy