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________________ लाओत्सु का पड़ोसी बोला, उसने कुछ विशेष तो कहा नहीं था, उसने तो केवल इतना ही कहा था कि कितनी सुंदर सुबह है।" लाओत्सु ने कहा, 'मैं भी तो वहीं पर था, फिर ऐसा कहने की क्या आवश्यकता थी? और सुबह तो बिना कहे भी सुंदर ही रहती। मन को बीच में लाने की जरूरत ही क्या थी? नहीं, यह आदमी बहुत ज्यादा बातूनी है, आगे से उसे साथ मत लाना।' 'उसने सुबह का पूरा मजा ही खराब कर दिया। उसने जगत का विभाजन कर दिया। उसने कहा कि सूर्योदय सुंदर है। जब हम कभी किसी चीज को सुंदर कहते हैं, तो उसके साथ ही किसी अन्य चीज की निंदा हो ही जाती है, क्योंकि कुरूप के बिना सुंदर का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। जिस क्षण किसी चीज को सुंदर कहा, उसी क्षण यह भी कह दिया कि कुछ कुरूप है। जिस क्षण तुम कहते हो कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तो तुमने साथ ही यह भी कह दिया कि तुम्हें किसी दूसरे से घृणा भी है। अगर व्यक्ति अखंड रूप से बिना विभाजन किए, एक होकर जीता है.. बस फूल को देखना। वह जैसा भी है उसे वैसा ही रहने देना उसे उसके स्वरूप में ही रहने देना, कुछ भी कहना मत। बस, उसे देखना। केवल बाहर से बोलकर ही कुछ नहीं कहना है, बल्कि भीतर भी कुछ नहीं कहना है। फूल के लिए किसी भी प्रकार की मन में कोई धारणा मत बनाना। बस, फूल जैसा है उसे उसी भांति रहने देना, और तब तुम एक बड़े बोध को उपलब्ध हो जाओगे। जब तुम्हें उदासी का अनुभव हो, तो उसे उदासी मत कहना। मैंने इस ध्यान की प्रक्रिया को हु लोगों को दिया है, और वे चकित हुए हैं। मैं उनसे कहता हूं, 'अगली बार जब तुम्हें उदासी पकड़े, तो उसे उदासी मत कहना। बस उसे देखते रहना । ' तुम्हारा उसे उदास कहना ही उसे उदासी बना देता है। जो कुछ भी वह है, बस उसे देखना मन को बीच में मत लाना, किसी तरह का कोई विश्लेषण मत करना, उस पर किसी प्रकार का कोई लेबल मत चिपकाना। मन हर चीज को विभक्त कर देता है। मन बड़ा विभाजन कर्ता है, और वह निरंतर चीजों पर लेबल लगाता रहता है, उन्हें कोटियों में, श्रेणियों में बांटता रहता है। चीजों को कोटिबद्ध मत करना। सत्य को स्वयं ही अस्तित्व में आने देना, सत्य जैसा है उसको वैसा ही रहने देना, और तुम केवल साक्षी रहना। फिर एक दिन तुम कह सकोगे, अब समझ में आया कि उदासी कोई उदासी नहीं है, और प्रसन्नता कोई प्रसन्नता नहीं है, जैसा कि हम पहले समझा करते थे।' 1 जब हम चीजों को बांटना, उन्हें विभक्त करना छोड़ देते हैं, तो धीरे धीरे सीमाएं आपस में विलीन हो जाती हैं, मिट जाती हैं, और एक दूसरे में समाहित हो जाती हैं। वह एक ही ऊर्जा है – चाहे वह प्रसन्नता हो या उदासी - वें दोनों — और तब तुम यह जान सकोगे एक ही हैं। तुम्हारी व्याख्याएं ही
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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