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________________ अलग हूं। मैं तुम्हें देख रहा हूं. तुम मेरी दृष्टि के घेरे में आए विषय हो और मैं अपनी दृष्टि का, उस देखने वाली क्षमता का साक्षी हूं। तुम अलग हो, मैं अलग हूं। ज्ञात ज्ञाता से भिन्न होता है, द्रष्टा दृश्य से भिन्न होता है। और जब किसी आवेग पर संयम आ जाता है -तो चाहे वह आवेग काम का हो, लोभ का हो, या अहंकार का हो -हम उससे कहीं अलग हो जाते हैं, क्योंकि अब हम उसे देख सकते हैं। तब वह आवेग विषय-वस्तु की भांति वहा मौजूद होता है -और हम भी मौजूद होते हैं, लेकिन हम उसको देखने वाले द्रष्टा हो जाते हैं। तो कैसे हम कर्ता बन सकते हैं? कोई व्यक्ति जब साक्षी भाव खो जाता है तभी कर्ता बनता है; वह विषय-वस्तु के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वह समझता है, यह काम का आवेग मुझ से जुड़ा है, यह मैं ही हूं। शरीर में उठ रही भूख, यह मेरी है, यह मैं ही हूं। अगर हम भूख को ध्यान से देखें, तो वह भूख शरीर में होती है, शरीर की ही होती है, हम उस भूख से कहीं दूर होते हैं। कभी इस प्रयोग को करके देखना। जब तुम्हें भूख लगे तो बस बैठ जाना, आंखें बंद कर लेना और भूख को ध्यान से देखते रहना। जब भूख के साथ तुम्हारा तादात्म्य स्थापित हो जाता है, उसी क्षण साक्षीभाव खो जाता है, और तुम कर्ता बन जाते हो। साक्षी होने की समस्त कला ही यही है कि जिस-जिस चीज को हम पकड़े हुए हैं उनसे स्वयं को अलग जानने में वह हमारी मदद करे। नहीं, संयम के साथ कर्ता का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। संयम के साथ तो कर्ता मिट जाता है, खो जाता है। और इस बात का बोध हो जाता है कि मैंने तो कभी कुछ किया ही नहीं है –चीजें अपने से घटित होती हैं, लेकिन मैंने कुछ नहीं किया। मैं कर्ता नहीं हूं। मैं तो शुद्ध साक्षी हूं? देखने वाला हूं? विटनेस हं। और यही समस्त धर्मों का अंतिम सत्य है। '.......हम तो सोचते हैं कि कामगत इच्छाओं से मुक्त हो कर ही हमें लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है..।' इसी से सारी समस्या खड़ी हो रही है, क्योंकि तुम्हारे पास पहले से कुछ बनी बनाई धारणा और विचार विद्यमान हैं -तुम 'सोचते' हो। अगर तुम्हारे पास अपने कुछ विचार और सिद्धांत हैं, तो उन्हें आचरण में उतार लो और तब तुम उनकी व्यर्थता को पहचान सकोगे। और वे विचार और सिद्धांत कितने समय से तुम्हारे साथ हैं, तुम अभी भी उनसे थके और ऊबे नहीं हो? उन धारणाओं और विचारों के रहते तुम्हारा हुआ क्या? कौन सा रूपांतरण तुममें घटित हो गया? कौन सी मुक्ति तुमको मिल गयी? थोड़ी समझ का और बुद्धि का उपयोग करो। थोड़ा इसे देखने की कोशिश करो. कि तुम जिन विचारों को जीवनभर ढोते रहे हो उनसे हुआ क्या? वे सब विचार तुम्हारे भीतर कूड़े -कचरे की तरह पड़े हुए हैं, उनसे कुछ भी तो नहीं हुआ। अब तो अपने भीतर की सफाई करो।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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