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________________ बात की समझ आएगी, उसका अतिक्रमण हो जाएगा। लेकिन असली समस्या तो तीसरे के साथ, करीब -करीब के साथ - करीब -करीब से काम न चलेगा। इसलिए फिर से देखना। अपने हृदय में गहरे देखना। जितना संभव हो सके उतना हृदय में गहरे देखना, ध्यानपूर्वक, होशपूर्वक देखना। अपने हृदय की सुनना। अगर हृदय सच में योग से प्रेम करता है -योग का मतलब है खोज, जीवन का वास्तविक सत्य क्या है, इसकी खोज -अगर हृदय में सच में ही खोज की अभीप्सा है, तो फिर उसे कोई रोक नहीं सकता है। तब न तो भोग बाधा बनेगा और न ही कोई रोग बाधा बनेगा। हृदय किसी भी परिस्थिति के पार जा सकता है। हृदय ऊर्जा का वास्तविक स्रोत है, इसलिए हृदय की सुनना। हृदय पर श्रद्धा रखना, और हृदय की ही सुनना, और हृदय की सुनकर ही आगे बढ़ना। और संबोधि इत्यादि की चिंता में मत पड़ना, क्योंकि वह चिंता भी मन की ही होती है। हृदय तो भविष्य के बारे में कुछ भी नहीं जानता है, वह तो वर्तमान में, इसी घड़ी में, इसी पल में जीता है। अत: खोजो, ध्यान करो, प्रेम करो, वर्तमान के क्षण में जीओ और संबोधि की फिक्र मत करो, वह अपने से उपलब्ध हो जाती है। संबोधि की फिक्र क्यों है? अगर तुम तैयार हो, तो संबोधि तो उपलब्ध हो ही जाएगी। और अगर तैयार नहीं हो, तो उसके बारे में निरंतर सोचते रहना तुम्हें उसके लिए तैयार नहीं करेगा, बल्कि सोचना बाधा बन जाएगा। इसलिए संबोधि की बात तो भूल ही जाओ, और न ही इसकी फिक्र करो कि संबोधि इस जीवन में घटित होगी या नहीं होगी। जब तुम तैयार होगे तो वह घटेगी। संबोधि इसी क्षण, इसी पल, अभी और यहीं घट सकती है। वह तैयारी पर निर्भर करती है। जब फल पक जाता है तो अपने से गिर जाता है। सब कुछ तुम्हारी परिपक्वता पर निर्भर करता है। इसलिए अपने आसपास व्यर्थ की समस्याएं मत खड़ी करना। बस, अब बहत हो चुका। तुम रोगी हो, यह एक समस्या है। तम भोगी हो, यह एक समस्या है। और हृदय 'करीब-करीब' योगी है, यह करीब-करीब भी एक समस्या है। अब कोई और नई समस्या मत बनाना। कृपा करके संबोधि को बीच में मत लाओ। उसके बारे में भूल जाओ। संबोधि का तुम से और तुम्हारे सोचने –विचारने से, और तुम्हारी आशाओं और अपेक्षाओं से, और आकांक्षाओं से कुछ लेना देना नहीं है। उन बातों के साथ उसका जरा भी संबंध नहीं है। जब भी भीतर किसी भी प्रकार की आकांक्षा शेष नहीं रह जाती है, और फल पक गया होता है, तो संबोधि अपने से घट जाती है। छठवां प्रश्न: जब आप शरीर छोड़े तो मैं भी आपके साथ मर जाना चाहता हूं क्या ऐसा संभव है? क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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