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________________ तुम अपना लक्ष्य चूक रहे हो, क्योंकि तुम एकाग्र नहीं हो। मनुष्य की सारी पीड़ा और दुख का कारण ही यही है कि वह एक साथ बहुत सी दिशाओं में भाग रहा है –बिना किसी निर्णय के, बिना किसी लक्ष्य के वह भागा चला जा रहा है। वह जानता ही नहीं है कि कहां जा रहा है, क्यों जा रहा है, किसलिए जा रहा है। बस जा रहा है। मैंने सुना है कि एक मनोविश्लेषक के द्वार पर दो राजनीतिज्ञों का मिलना हुआ। एक राजनीतिज्ञ बाहर आ रहा था, और दूसरा राजनीतिज्ञ जो कि भीतर जा रहा था, वह पूछने लगा, ' आप भीतर आ रहे हैं या बाहर जा रहे हैं?' जो बाहर आ रहा था वह कहने लगा, 'अरे, अगर मुझे यह मालूम होता कि मैं बाहर जा रहा हूं या भीतर आ रहा हूं, तो मैं यहां पर आता ही क्यों।' कोई भी नहीं जानता है कि वह बाहर आ रहा है या भीतर जा रहा है। आखिर तुम जा कहां रहे हो? तुम किसे खोज रहे हो? तुम्हारा लक्ष्य हमेशा बदलता रहता है, इसलिए तुम चूकते चले जाते हो। लक्ष्य निरंतर बदलते रहते हैं। तुम हजारों लक्ष्यों से घिरे रहते हो, और उन हजारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए तुम्हारे उतने ही रूप हो जाते हैं, तुम एक भीड़ हो जाते हो -एक ऐसी भीड़ जो कि प्रत्येक लक्ष्य पर निशाना साधने की कोशिश कर रही होती है। और अंत में पाते हो कि हाथ खाली के खाली ही रह गए पूरा जीवन व्यर्थ ही चला गया। 'समाधि परिणाम वह आंतरिक रूपांतरण है, जहां चित्त को तोड़ने वाली अशांत वृत्तियों का क्रमिक ठहराव आ जाता है और साथ ही साथ एकाग्रता उदित होती है।' जब विचार मिट जाते हैं -विचार चित्त को विभक्त करते हैं -तब एकाग्रता उदित होती है। तब तुम एक हो जाते हो। तब चेतना का प्रवाह एक ही दिशा में होने लगता है, चेतना को दिशा मिल जाती है। चेतना के पास अब एक सुनिश्चित दिशा होती है। जिसके माध्यम से अब लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है, और पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है। 'एकाग्रता परिणाम वह एकाग्र रूपांतरण है, चित्त की ऐसी अवस्था है जहां चित्त का विचार-विषय जो कि शांत हो रहा होता है, वह अगले ही क्षण ठीक वैसे ही विचार -विषय द्वारा प्रतिस्थापित हो जाता साधारणतया जब एक विचार जा रहा होता है, और उसकी जगह दूसरा विचार आ रहा होता है तो उसका स्वरूप बिलकुल ही अलग होता है। उदासी जाती है, तो प्रसन्नता आ जाती है। प्रसन्नता जाती है, तो निराशा आ जाती है। निराशा नहीं होगी तो क्रोध आने लगेगा। क्रोध नहीं होगा तो उदासी घेरने लगेगी। जब आसपास का वातावरण बदलता है, तो उस वातावरण के साथ-साथ तुम भी बदलते हो। हर क्षण तुम्हारी भाव-दशा अलग - अलग होती है। इसलिए, अगर तुम्हें यह पता न हो कि तुम कौन हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि-क्योंकि सुबह तुम क्रोध में आग –बबूला हो रहे थे दोपहर
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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