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________________ खयाल रखना कि वह भी तुम्हें खोज रहा है। क्योंकि जब तक दोनों तरफ से ही खोज और तड़पन न हो, मिलन संभव नहीं है। समग्र भी अंश को उतना ही खोज रहा है, जितना कि अंश समग्र को खोज रहा है। फूल सूर्य को उतना ही खोज रहा है, जितना सूर्य फूल को खोज रहा है। केवल गिरगिट ही धूप का आनंद नहीं ले रहा है, सूर्य भी, गिरगिट के आनंद में भाग ले रहा है। अस्तित्व में सभी कुछ एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। ऐसा ही होना भी चाहिए, अन्यथा पूरा अस्तित्व ही बिखर जाएगा। पूरा अस्तित्व एक है, उसमें एक ही हृदय धड़क रहा है, एक ही नृत्य हो रहा है। सभी कुछ एक -दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है। अस्तित्व को इस भांति होना ही है; अन्यथा सभी कुछ अलग-अलग हो जाएगा और फिर अस्तित्व अस्तित्व न रह जाएगा-वह खो जाएगा। तुम्हें यह बात मैं एक कथा के माध्यम से कहना चाहंगा। जरा इस कथा पर ध्यान देना इसे ऐसे समझो कि एक आदमी पर्वत पर चढ़ गया-क्योंकि वह घाटी में त । चुका था और घाटी में उसने बहुत से सपने देखे, विचारों की उड़ानें भरीं, बहुत सी कल्पनाएं संजोई, लेकिन हमेशा उसे केवल हताशा और निराशा ही हाथ लगी। घाटी में वह रहा अवश्य, लेकिन हमेशा उसे कुछ खाली - खाली, कुछ अधूरा-सा ही लगता रहा। अत: एक दिन उसने सोचा कि पर्वत के शिखर पर जरूर परमात्मा रहता होगा। घाटी में तो वह रह चुका था। पर्वत का शिखर तो घाटी से बहुत दूर था; जब सूर्य की किरणों में वह पर्वत चमकता था, तो वह उसे बहुत ही आकर्षित करता था। दूर की चीजें हमेशा आकर्षित लगती हैं, वे हमेशा तुम्हें पुकारती रहती हैं, आमंत्रित करती रहती हैं। अपने निकट की वस्तु को देखना बहुत ही कठिन होता है। जो पास में है, उसमें रस होना बहुत मुश्किल होता है। और जो दूर है, उसमें कोई रस न हो, आकर्षण न हो, यह भी मुश्किल होता है। दूर की वस्तु में तो बहुत ही अदभुत आकर्षण रहता है, और इसीलिए पर्वत की चोटी निरंतर पुकारती हुई मालूम होती है। और जब घाटी में कुछ खाली-खाली लगे, रिक्तता का अनुभव हो, तो निस्संदेह ऐसा सोचना तर्क संगत भी है कि जिसे हम खोज रहे हैं वह घाटी में तो नहीं है। वह जरूर पर्वत के शिखर पर ही होगा। मन के लिए यह एकदम सहज और स्वाभाविक है कि वह एक अति से दूसरी अति की ओर सरक जाए, वह तुरंत घाटी से शिखर तक पहुंच जाता है। मनुष्य सोचता है कि परमात्मा कहीं दूर पर्वत के ऊपर मौजूद है। मनुष्य जहां नीचे घाटी में रहता है, वहा मनुष्य की इच्छाएं भी हैं, वासनाएं भी हैं, परेशानियां भी हैं, प्रेम भी है, घृणा भी है और युद्ध भी है, सारी की सारी समस्याएं वहां पर मौजूद हैं। घाटी में तो चिंताओं पर चिंताएं इकट्ठी होती चली जाती हैं, और इसी तरह चिंताओं के बोझ से दबे -दबे ही एक दिन मृत्यु की गोद में समा जाते हो।
SR No.034098
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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