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________________ - वाले और हिंसक लोग होते हैं एक तो होते हैं सैडिस्ट पर पीड़क, जो दूसरों को सताते हैंराजनीतिज्ञ, एडोल्फ हिटलर आदि और फिर होते हैं स्व-पीड़क तथाकथित धार्मिक व्यक्ति, संतमहात्मा, जो सताते हैं स्वयं को वे मैसोचिस्ट होते हैं। दोनों एक ही हैं. हिंसा वही है। चाहे तुम किसी दूसरे के शरीर को सताओ या अपने शरीर को, उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता- तुम हिंसा तो कर ही रहे हो। त्याग कोई अपने को सताना नहीं है। यदि वह अपने को सताना हो जाता है तो वह सिर के बल खड़ी राजनीति ही है शायद तुम इतने कायर हो कि तुम दूसरों को नहीं सता सकते। तथाकथित सौ धार्मिक व्यक्तियों में से निन्यानबे तो स्व-पीड़क ही होते हैं, कायर होते हैं। वे दूसरों को सताना चाहते थे, लेकिन भय था और खतरा था, और वे वैसा न कर सके। तो उन्होंने बड़ा निर्दोष, अवश शिकार खोज लिया. उनका अपना ही शरीर और वे लाखों ढंग से उसे सताते हैं। असुरक्षित, नहीं, त्याग का तो अर्थ है जानना; त्याग का तो अर्थ है सजगता, त्याग का अर्थ है साक्षात्कार - इस तथ्य का साक्षात्कार कि तुम शरीर नहीं हो तो खत्म हो जाती है बात तुम रहते हो उसमें भलीभांति जानते हु कि तुम वह नहीं हो तादात्म्य न हो, तो शरीर सुंदर है और अस्तित्व के बड़े से बड़े रहस्यों में एक है। यही है वह मंदिर जहां सम्राटों का सम्राट छिपा है। : जब तुम समझ लेते हो कि त्याग क्या है, तब तुम समझ लेते हो कि यह नेति नेति है। तुम कहते हो, मैं शरीर नहीं हूं क्योंकि में सजग हूं शरीर के प्रति वह सजगता ही मुझे पृथक और भिन्न बना देती है।' और गहरे उतरो प्याज के छिलकों को छीलते जाओ मैं विचार नहीं हूं क्योंकि वे तो आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन मैं रहता हूं। मैं भावनाएं नहीं हूं....' वे आती हैं, और कई बार तो बड़ी शक्तिशाली होती हैं, और तुम उनमें स्वयं को पूरी तरह भूल जाते हो, लेकिन वे भी चली जाती हैं। एक समय था वे नहीं थीं, तुम थे, एक समय था वे थीं, और तुम ढंक गए थे उनमें अब फिर ऐसा समय है जब वे जा चुकी हैं और तुम बैठे हुए हो वहीं तुम वे भावनाएं नहीं हो सकते। तुम अलग हो । | : छीलते जाओ प्याज को नहीं, शरीर नहीं हो तुम; विचार नहीं हो तुम भाव नहीं हो तुम। और यदि तुम जान लेते हो कि तुम इन पर्तों में से कुछ भी नहीं हो, तो तुम्हारा अहंकार बिलकुल तिरोहित हो जाता है, पीछे कोई निशान भी नहीं छूटता - क्योंकि तुम्हारा अहंकार इन तीन पर्तों के साथ तादात्म्य के सिवाय कुछ भी नहीं है। फिर तुम होते हो, लेकिन तुम 'मैं' नहीं कह सकते। यह शब्द अर्थ खो देता है अहंकार नहीं रहा तुम घर लौट आए। यही संन्यास का अर्थ है उस सब को इनकार कर तादात्म्य बनाए हुए हो। यही है शल्य क्रिया । यही है कांटना । 'योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से.. ।' देना जो कि तुम नहीं हो, लेकिन जिसके साथ
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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