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________________ कुछ नया नहीं पा लिया जाता, बस तुम समझ जाते हो कि बाहर देखने में ही सारी बात चूक रही थी। भीतर देखते हो, वह वहा मौजूद है। वह सदा से ही वहा मौजूद है, एक क्षण को भी कभी ऐसा नहीं होता जब कि वह नहीं था और न ही ऐसा क्षण आगे कभी होगा क्योंकि परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, सत्य कहीं बाहर नहीं है तुमसे. वह तुम्ही हो अपनी आत्यंतिक महिमा में, वह तुम्ही हो अपनी परम विशुद्धता में। यदि तुम समझ लो इसे, तो पतंजलि के ये सूत्र बहुत आसान हो जाएंगे। योग के विभिन अंगों के अभ्यास दवारा अशुदधि के क्षय होने से आत्मिक प्रकाश का आविर्भाव होता है जो कि सत्य का बोध बन जाता है। वे नहीं कह रहे हैं कि कुछ निर्मित करना है; वे कह रहे हैं कि कुछ हटाना है। तुम कुछ ज्यादा ही हो अपनी स्व सत्ता से यही है समस्या। तुमने अपने आस-पास बहुत कुछ इकट्ठा कर लिया है, हीरे पर बहत कीचड़ जम गया है। कीचड़ को धो देना है। और अचानक, हीरा प्रकट हो जाता है। 'योग के विभिन्न अंगों के अभ्यास द्वारा अशुद्धि के क्षय होने से......।' यह कोई शुद्धता या पावनता या दिव्यता को निर्मित करने की बात नहीं है, यह केवल अशुद्धि को हटाने की बात है। शुद्ध तो तुम हो ही। पावन तो तुम हो ही। तो पूरी बात ही बदल जाती है। तो बस कुछ चीजें कांट देनी हैं और गिरा देनी हैं; कुछ चीजें अलग कर देनी हैं। गहरे में यही अर्थ है संन्यास का, त्याग का। यह घर को छोड़ देना नहीं है, परिवार को छोड़ देना नहीं है, बच्चों को छोड़ देना नहीं है-वह तो बहुत कठोर मालूम पड़ता है। और करुणावान व्यक्ति ऐसा कैसे कर सकता है? तो पत्नी को नहीं छोड़ देना है, क्योंकि वह कोई समस्या नहीं है। पत्नी परमात्मा के मार्ग में बाधा नहीं है; न तो बच्चे बाधा हैं और न घर। नहीं, यदि तुम उन्हें छोड़ देते हो तो तुम समझे ही नहीं। कुछ और छोड़ना है, जिसे तुम अपने भीतर इकट्ठा करते रहे हो। यदि तुम घर छोड़ना चाहते हो तो असली घर छोड़ना, जो शरीर है, जिसमें तुम रहते हो और निवास करते हो। और छोड़ने से मेरा यह अर्थ नहीं है कि जाओ और आत्महत्या कर लो, क्योंकि वह तो कोई छोड़ना न होगा। इतना ही जान लेना कि तुम शरीर नहीं हो, पर्याप्त है। शरीर के प्रति कठोर होने की कोई जरूरत नहीं है। तुम शरीर नहीं हो, लेकिन शरीर भी तो परमात्मा का ही है। तुम नहीं हो शरीर, लेकिन शरीर का भी अपना जीवन है, वह भी हिस्सा है जीवन का, वह भी अंग है इस समग्रता का। तो कठोर मत होओ उसके प्रति, हिंसक मत होओ उसके प्रति। स्व-पीड़क मत होओ। धार्मिक व्यक्ति करीब-करीब सदा ही स्व-पीड़क हो जाते हैं। या वे पहले से ही होते हैं-धर्म एक आडू बन जाता है और वे स्वयं को सताना शुरू कर देते हैं। स्व–पीड़क मत बनो। दो तरह के सताने
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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