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________________ होता। किसी गहरे अर्थ में वह वही बन जाता है : वह उतरता जाता है फूल में और फूल को उतरने देता है अपने में, और एक गहन मिलन घटता है। उस मिलन में फूल का स्वरूप जाना जाता है। अब विज्ञान भी कहता है कि जब तुम किसी चीज को ध्यानपूर्वक देखते हो तो तुम सहभागी होते हों-चाहे कितनी ही छोटी क्यों न हो वह सहभागिता, लेकिन फिर भी तुम सहभागी होते हो। कवि कहा करता था कि जब तुम किसी फल की तरफ देखते हो तो वह फिर वही फल नहीं रहता जैसा कि वह तब था जब किसी ने उसकी ओर देखा न था, क्योंकि तुम उसमें प्रवेश कर चुके हो, उसका हिस्सा बन चुके हो। तुम्हारी दृष्टि भी अब उसका हिस्सा हो जाती है; पहले वह वैसा न था। जंगल में किसी अज्ञात पगडंडी के किनारे खिला एक फूल, जिसके पास से कोई गुजरा नहीं, वह एक अलग ही फूल होता है; फिर अचानक कोई आ जाता है जो देखता है उसकी तरफ-वह फूल अब वही न रहा। फूल बदल देता है द्रष्टा को, और दृष्टि बदल देती है फूल को। एक नई गुणवत्ता प्रवेश कर गई। लेकिन यह ठीक था कवियों के लिए कोई भी उनसे बहत तार्किक और वैज्ञानिक होने की आशा नहीं रखता-लेकिन अब तो विज्ञान भी कहता है कि यही प्रयोगशालाओं में घट रहा है : जब तुम निरीक्षण करते हो तो निरीक्षण की वस्तु वही नहीं रह जाती, उसमें देखने वाला शामिल हो जाता है और गुणवत्ता बदल जाती है। अब भौतिकशास्त्री कहते हैं कि जब कोई उन्हें देख नहीं रहा होता तो परमाणु अलग ही ढंग से व्यवहार करते हैं। जैसे ही तुम उन्हें देखते हो, वे तुरंत अपनी गतिया बदल देते हैं। बिलकुल ऐसे ही जैसे कि जब तुम अपने स्नानगृह में होते हो तो तुम एक अलग ई व्यक्ति होते हो, फिर अचानक ही तुम्हें लगता है कि चाबी के छेद से कोई देख रहा है –तत्क्षण तुम बदल जाते हो। परमाणु भी जब अनुभव करता है कि कोई देखने वाला है, तो फिर वह वही नहीं रहे जाता; वह अलग ही ढंग से गति करने लगता है। यही थी सीमाएं : विज्ञान को समझा जाता था बिलकुल अव्यक्तिगत, कला थी विज्ञान और धर्म के मध्य में और समझा जाता था कि उसकी आशिक सहभागिता होती है; और धर्म था समग्र सहभागिता। एक कवि देखता है फूल को, तब ऐसी झलकियां मिलती हैं जब वह भी खो जाता द्वै, फूल भी खो जाता है। लेकिन ये केवल झलकियां ही होती हैं, कुछ क्षणों के लिए मिलन घटता है, और फिर वे अलग हो जाते हैं, फिर वे पृथक हो जाते हैं। जब एक रहस्यदर्शी, एक धार्मिक व्यक्ति फूल को देखता है तब क्या घटता है? तब सहभागिता समग्र होती है, आशिक नहीं होती। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं; बच रहती है केवल वह ऊर्जा जो दोनों के बीच आंदोलित हो रही होती है। अनुभूति बच रहती है, अनुभव करने वाला नहीं बचता, न ही अनुभव की विषय-वस्तु बचती है। विपरीतताए खो जाती हैं, विषय और विषयी मिट जाते हैं, सारी सीमाएं खो जाती हैं। धर्म एक समग्र सहभागिता है। कविता या कला या चित्रकला आशिक सहभागिता है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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