SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दृश्य का अस्तित्व होता है मात्र द्रष्टा के लिए। कृतार्थ प्रति नष्टमप्यनटं तदन्यसाधारणत्वात् 112211 यद्यपि दृष्य उसके लिए मृत हो जाता है जिसने मुक्ति पा ली है। फिर भी बाकी दूसरों के लिए वह जीवित रहता है, क्योंकि यह सर्वनिष्ठ होता है। स्वस्वामीशक्त्योः स्वरूपोपलब्धि हेतुः संयोगः । 12311 द्रष्टा और दृश्य साथ-साथ होते है, ताकि प्रत्येक का वास्तविक स्वभाव जाना जा सके। तस्य हेतु: अविद्या ।। 24।। इस संयोग का कारण है अविद्या, अज्ञान। ज्ञानिक मानस सोचा करता था कि अव्यक्तिगत ज्ञान की, विषयगत ज्ञान की संभावना है। असल में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का यही ठीक-ठीक अर्थ हुआ करता था।' अव्यक्तिगत ज्ञान' का अर्थ है कि ज्ञाता अर्थात जानने वाला केवल दर्शक बना रह सकता है। जानने की प्रक्रिया में उसका सहभागी होना जरूरी नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह जानने की प्रक्रिया में सहभागी होता है तो वह सहभागिता ही ज्ञान को अवैज्ञानिक बना देती है। वैज्ञानिक ज्ञाता को मात्र द्रष्टा बने रहना चाहिए, अलग-थलग बने रहना चाहिए, किसी भी तरह उससे जुड़ना नहीं चाहिए जिसे कि वह जानता है। लेकिन अब बात ऐसी नहीं रही। वितान प्रौढ़ हुआ है। इन थोड़े से दशकों में, पिछले तीन-चार दशकों में विज्ञान अपने भ्रमपूर्ण दृष्टिकोण के प्रति सचेत हुआ है। ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो अव्यक्तिगत हो । ज्ञान का स्वभाव ही है व्यक्तिगत होना । और ऐसा कोई ज्ञान नहीं जो असंबद्ध हो, क्योंकि जाने अर्थ ही है संबद्ध होना। केवल दर्शक की भांति किसी चीज को जानने की कोई संभावना नहीं है; सहभागिता अनिवार्य है। इसलिए अब सीमाएं उतनी स्पष्ट नहीं रही हैं। पहले कवि कहा करता था कि उसके जानने का ढंग व्यक्तिगत है। जब एक कवि किसी फूल को जानता है तो वह उसे पुराने वैज्ञानिक ढंग से नहीं जानता। वह बाहर बाहर से ही देखने वाला नहीं
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy