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________________ तालमुद में कहा गया है कि ईश्वर तुम से पूछेगा. 'मैंने तुम्हें प्रसन्न होने के इतने अवसर दिए। तुमने क्यों खो दिए?' वह नहीं पूछेगा, 'तुमने कौन-कौन से पाप किए?' वह पूछेगा, 'तुमने प्रसन्न होने के कितने अवसर खोए? तुम जवाबदेह होओगे उनके लिए।' यह बात बहुत सुंदर है : 'तुम केवल उन अवसरों के लिए जवाबदेह होओगे जो तुम्हें उपलब्ध थे और तुम ने खो दिए।' तो ईमानदार रहना स्वयं के प्रति-वही एकमात्र ईमानदारी है जिसकी जरूरत है और फिर हर बात ठीक ही होगी। यदि तुम स्वयं के प्रति ईमानदार हो तो तुम सदा ढूंढ लोगे साथी, जीवन-साथी, जिसके साथ तुम विकसित होते हो, अन्यथा अलग हो जाना। इसमें कुछ बुरा नहीं है। और यह तुम्हारे साथी के लिए भी अच्छा है, क्योंकि यदि तुम विकसित नहीं हो रहे हो, तो तुम बदला लोगे। यही तो करते हैं प्रत्येक पति-पत्नी। यदि तुम विकसित नहीं हो रहे हो और तुम बंद, कैदी अनुभव करते हो, तो तुम दूसरे से बदला लेने लगते हो, क्योंकि उस दूसरे के कारण तुम बंधन में हो, उस दूसरे के कारण तुम कारागृह में हो। तब तुम क्रोधित रहोगे, लगातार क्रोधित रहोगे। तुम्हारा पूरा जीवन क्रोध से भर जाएगा। और तुम प्रेम नहीं कर सकते ऐसी हालत में। कैसे कोई प्रेम कर सकता है अपने कारागृह को? चाहे वह कारागृह कोई भी हो-तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा पति, तुम्हारे पिता, तुम्हारी मां, तुम्हारा गुरु-उससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है। यदि तुम यहां हो और तुम बंधन अनुभव करते हो, तो भाग जाओ-जितनी जल्दी भाग सको भाग जाओ-मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं। क्योंकि उस ढंग से यहां रहना खतरनाक है। तुम्हें मेरे प्रति श्रद्धाल नहीं होना है। पहली श्रद्धा होनी चाहिए अपने प्रति; शेष सब गौण है। यदि तुम बंधन 3 करते हो-अवरुद्ध, पंगु-तो भाग निकलना। एक पल की भी प्रतीक्षा मत करना, और कभी पीछे मुड़ कर मत देखना। कहीं और खोजना। जीवन विराट है, अनंत है। तुम्हें कोई और मिल सकता है जो तुम्हारे ज्यादा अनुकूल हो और जो तुम्हारे लिए बंधन न हो, मुक्ति हो। जाओ वहां। खोजो। सदा खोजते रहो। अन्यथा यदि तुम यहां अटका हुआ अनुभव कर रहे हो, सोच रहे हो कि तुम बंधन में हो, तो तुम मुझसे बदला लोग। तुम दिखाओगे जैसे कि तुम शिष्य हो, लेकिन तुम शत्रु बन जाओगे। और किसी न किसी दिन तुम फूट पड़ोगे। सभी संबंधों में यह बात स्मरण रखने की है कि इस जीवन में तुम आए हो सीखने के लिए, विकसित होने के लिए ज्यादा बुद्धिमान होने और सजग होने के लिए। यदि कोई बात पंगु करती है, तो उसी अवस्था में बने रहना पाप है। आगे बढ़ो। इस ढंग से तुम अधिक प्रेमपूर्ण जगत निर्मित करोगे। लेकिन ठीक उलटी बात सिखाई गई है : यदि तुम्हें अपनी पत्नी से प्रेम नहीं है, तो भी प्रेम करो उसे। और कोई नहीं पूछता, 'कैसे कोई किसी को प्रेम कर सकता है यदि उसे प्रेम नहीं है?' हो सकता है, शुरू में प्रेम रहा हो, फिर वह मिट गया। लेकिन तुम्हें सिखाया जाता है कि प्रेम कभी मिटता नहीं है। यह
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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