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________________ लेकिन यह 'स्वार्थ' शब्द निंदित हो गया है। जब कोई कहता है, 'स्वार्थी मत बनो', तो उसने निंदा कर दी होती है। मैं फिर उस सुंदर शब्द को शुद्ध करना चाह रहा हूं। मैं कोशिश कर रहा हूं उसे उसकी मूल महिमा तक लाने की। वह शब्द तो हीरे जैसा है, चाहे वह कीचड़ में ही क्यों न पड़ा हो। उसे साफ किया जा सकता है और धोया जा सकता है। और यदि तुम मुझे समझते हो तो तुम पाओगे कि जब तुम सच में ही स्वार्थी हो, केवल तभी तुम निःस्वार्थी हो सकते हो। मैं तुम्हें स्वार्थी होना सिखाता हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुम निःस्वार्थी होओ। आठवां प्रश्न: बाहरी घटनाओं, जैसे कि मृत्यु धोखा देना इत्यादि में मेरे मन का कितना हिस्सा है? इन बातों के लिए मैं कैसे जिम्मेवार हूं? तम जिम्मेवार नहीं हो इन बातों के लिए। यदि कोई आदमी मर जाता है, तो तुम उसकी मृत्यु के लिए जिम्मेवार नहीं हो; लेकिन जिस ढंग से तुम मृत्यु की व्याख्या करते हो, उसके लिए तुम जिम्मेवार हो। जब कोई धोखा देता है तुम्हें, तो तुम उसके धोखा देने के लिए जिम्मेवार नहीं हो। कैसे जिम्मेवार हो सकते हो तुम? लेकिन तुम उसे धोखा कह रहे हो; शायद वह धोखा न हो। उसे धोखा कहना तुम्हारी व्याख्या है, और उस व्याख्या के लिए तुम जिम्मेवार हो। तुम उसे मृत्यु कहते हो. यदि तुम्हारी मां मरती है, तुम उसे मृत्यु कहते हो और तुम दुखी होते हो। तुम इसलिए दुखी नहीं होते क्योंकि मां मर गई है। तुम दुखी होते हो क्योंकि तुम सोचते हो कि यह मृत्यु है। यदि तुम जीवन को समझो तो तुम जानोगे कि कहीं कोई मृत्यु नहीं है। तब मां की मृत्यु होगी-मां की मृत्यु तो कभी न कभी होनी ही है-लेकिन तुम दुखी नहीं होओगे। उसने पुराना शरीर बदल लिया है। असल में यह घड़ी तो आनंद मनाने की है। क्योंकि उसे कैंसर था या टी .बी. थी, बुढ़ापा था और हजारों बीमारियां थीं, और वह खींच रही थी। तुम इसे मृत्यु कहते हो? मैं इसे कहता हूं नए में प्रवेश के लिए पुराने शरीर को छोड़ देना। क्यों दुखी होना इसके लिए? इसके लिए तो प्रसन्न होना चाहिए और आनंदित होना चाहिए। तो यह निर्भर करता है व्याख्या पर, और व्याख्या तुम्हारी जिम्मेवारी है। कोई तुमको धोखा दे देता है। लेकिन कौन कह रहा है कि यह धोखा है? उदाहरण के लिए : तुम्हारा पति, तुम्हारी पत्नी, तुम्हारा प्रेमी तुमसे अलग हो जाता है। तुम इसे धोखा कहते हो, यह तुम्हारी व्याख्या है। शायद तुम बहुत
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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