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________________ जब पेट में बहुत ज्यादा दमन इकट्ठा हो जाता है, तो शरीर दो भागों में बंट जाता है-निम्न और उच्च। तब तुम अखंड नहीं रहते; तुम दो हो जाते हो। निम्न भाग निंदित हिस्सा होता है। एकत्व खो जाता है, दवैत आ जाता है तुम्हारे अस्तित्व में। अब तुम सुंदर नहीं हो सकते, तुम प्रसादपूर्ण नहीं हो सकते। तुम एक की जगह दो शरीर लिए रहते हो। और उन दोनों के बीच सदा एक दूरी रहेगी। तुम संदर ढंग से चल नहीं सकते, तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। असल में यदि शरीर एक होता है, तो तुम्हारी टलें तुम्हें लेकर चलती हैं। यदि शरीर दो में बंटा हुआ है, तो तुम्हें घसीटना पड़ता है अपनी टांगों को। तुम्हें ढोना पड़ता है अपने शरीर को। वह बोझ जैसा लगता है। तुम आनंदित नहीं हो सकते उससे। तुम टहलने का आनंद नहीं ले सकते, तुम तैरने का आनंद नहीं ले सकते, तुम तेज दौड़ने का आनंद नहीं ले सकते क्योंकि शरीर एक नहीं है। इन सभी गतियों के लिए और उनसे | होने के लिए, शरीर को फिर से अखंड करने की जरूरत है। एक अखंडता फिर से निर्मित करनी जरूरी है : पेट को पूरी तरह शुद्ध करना होगा। और पेट की शुद्धि के लिए बहुत गहरी श्वास चाहिए, क्योंकि जब तुम गहरी श्वास भीतर लेते हो और गहरी श्वास बाहर छोड़ते हो, तो पेट उस सब को बाहर फेंक देता है जो वह ढो रहा होता है। श्वास बाहर फेंकने में पेट स्वयं को निर्मक्त करता है। इसीलिए प्राणायाम का, गहरी श्वास का इतना महत्व है। श्वास छोड़ने पर जोर होना चाहिए, ताकि जो चीज भी पेट अनावश्यक रूप से ढो रहा है, निर्मुक्त हो जाए। और जब पेट दमित भावनाओं से मुक्त हो जाता है, तो यदि तुम्हें कब्ज रहती है तो अचानक गायब हो जाएगी। जब तुम भावनाओं को दबा लेते हो पेट में, तो कब्जियत रहेगी, क्योंकि पेट कठोर हो जाता है। गहरे में तुम रोक रहे होते हो पेट को; तुम उसे स्वतंत्र रूप से गति नहीं करने देते। इसलिए यदि भावनाओं का दमन किया गया है, तो कब्ज होगी ही। कब्ज एक मानसिक रोग ज्यादा है शारीरिक रोग की अपेक्षा। वह शरीर की अपेक्षा मन से ज्यादा संबंधित है। लेकिन ध्यान रहे, मैं मन और शरीर को दो में नहीं बांट रहा हूं। वे एक ही घटना के दो पहलू हैं। मन और शरीर दो चीजें नहीं हैं। असल में 'मन और शरीर' कहना ठीक नहीं. इसे 'मनोशरीर' कहना ज्यादा ठीक होगा। तुम्हारा शरीर एक साइकोसोमैटिक घटना है। मन शरीर का सूक्ष्म भाग है और शरीर मन का स्थूल भाग है। और वे दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं; वे साथ-साथ चलते हैं। यदि तुम मन में कुछ दबा रहे हो, तो शरीर में ग्रंथियां बननी शुरू हो जाएंगी। यदि मन निर्भार हो जाता है तो शरीर भी हलका हो जाता है। इसीलिए मेरा रेचन पर इतना जोर है। रेचन एक अधिकारक प्रक्रिया ये सब तप के अंतर्गत आते हैं. उपवास; स्वाभाविक भोजन; गहरी श्वास; योग के आसन; सहजस्वाभाविक लोचपूर्ण जीवन, कम से कम दमन; शरीर को सुनना; शरीर की समझ से चलना।'तपश्चर्या अशुद्धियों को मिटा देती है।'
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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