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________________ फिर उपवास है : उपवास अपने आप में अच्छी बात हो सकती है, बुरी बात हो सकती है। यह निर्भर करता है। उपवास एक ढंग हो सकता है शरीर को सताने का; तो यह बुरी बात है, तो यह हिंसा है। मेरे देखे ऐसा ही है : जो लोग दूसरों के प्रति हिंसक नहीं हैं, जिन्होंने दूसरों के प्रति हिंसा को दबा लिया है और अहिंसक हो गए हैं-उनकी हिंसा नया रुख ले लेती है : वे अपने शरीर पर ही हिंसा निकालने लगते हैं। विकृत लोगों की कथाएं हैं जिन्होंने अपनी आंखें फोड़ लीं ताकि वे संदर स्त्रियों को न देख सकें। ऐसी बहुत सी कथाएं हैं लोगों की-और कोई इक्की-दुक्की कथाएं नहीं हैं, हजारों कथाएं हैं। रूस में क्रांति से पहले एक संप्रदाय था, हजारों उस संप्रदाय के मानने वाले थे, जिन्होंने अपनी जननेंद्रियाँ काट दी-शरीर से अतिशय घृणा करने के कारण। वे बच्चे नहीं पैदा कर सकते थे। लेकिन फिर अनुयायियों की संख्या कैसे बढ़े? क्योंकि प्रत्येक संस्था को इसमें रस होता है। तो वे कठिनाई में थे। तो वे बच्चों को गोद ले लेते और उनकी जननेंद्रिया काट देते-अपने ही शरीर के प्रति एक अपराधपूर्ण कृत्य। ईसाइयत में ऐसे संप्रदाय हुए हैं जिनकी एकमात्र प्रार्थना थी रोज सुबह अपने को कोडे मारना। और जो अपने शरीर पर इतने ज्यादा कोड़े मारता कि वह नीला पड़ जाता, उसे सबसे महान संत समझा जाता था-तमाम शरीर लहूलुहान हो जाता और खून बहने लगता। ऐसा लिखा जाता था बड़े संतो की जीवन-कथाओं में कि सुबह उन्होंने अपने शरीर पर कितने कोड़े मारे -सौ, कि दो सौ, कि तीन सौ....| जैसे भारत में जैन मनि अपने दिन गिनते रहते हैं कि साल में कितने दिन उन्होंने उपवास कियासौ दिन, पचास दिन, कितने दिन। सबसे बड़ा मुनि वह होता है, जो उपवास ही करता रहा है-अपने शरीर को करीब-करीब भूखा ही रखता है। ईसाइयत में ऐसे फकीर हुए हैं जिनके जूतो में कीलें ठुकी रहतीं। जो चुभती रहतीं उनके पैरों में; और वे चलते उन जूतो को पहने हुए और वे अपने पैरों में हमेशा घाव बनाए रहते। खून बह रहा होता, मवाद भर गया होता-वे बड़े संत माने जाते थे! अगर कोई धर्म को वैज्ञानिक दृष्टि से देखे तो नब्बे प्रतिशत धर्म रुग्ण मालूम होगा। इन लोगों को मानसिक चिकित्सा की जरूरत थी। ये लोग धार्मिक न थे, बिलकुल नहीं थे। इन्हें धार्मिक कहना नितांत मढ़ता है. ये तो स्वाभाविक भी न थे; ये विक्षिप्त थे। ये दो साधारण प्रकार हैं, और फिर इन दोनों के बीच-एकदम ठीक मध्य में तीसरा प्रकार है, जिसके लिए पतंजलि 'जगप्सा' शब्द का प्रयोग करते हैं। उसे अपने शरीर से घृणा भी नहीं होती है और वह देह से ग्रस्त भी नहीं होता है। वह एक गहन संतुलन में होता है। वह शरीर का खयाल रखता है, क्योंकि शरीर एक माध्यम है। वह शरीर को पवित्र वस्तु के रूप में समझता है, सम्हालता है। शरीर पवित्र है-परमात्मा ने उसे बनाया है; और जो भी परमात्मा ने बनाया है, वह अपवित्र कैसे हो सकता
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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