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________________ इतिहास भरा पड़ा है उनसे-जनक अनूठे हैं। उन्होंने इस राह का अनुसरण नहीं किया। वे महल में रहे; वे सम्राट बने रहे। ऐसा हुआ कि एक साधक युवक से उसके गुरु ने कहा, 'अब तुम जनक के पास जाओ। तुम्हारी अंतिम दीक्षा उनके द्वारा संपन्न होगी। जो कुछ मैं सिखा सकता था, मैंने तुमको सिखा दिया है, लेकिन मैं तो एक भिक्षु हूं। मैं कुछ जानता नहीं संसार के विषय में, मैंने उसे त्यागा हुआ है। तुम्हें जाना चाहिए उस आदमी के पास जो संसार के विषय में जानता है। यही तुम्हारी अंतिम दीक्षा होगी। इससे पहले कि तुम त्यागो, तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति से सब सीख लेना चाहिए जो संसार को ठीक से जानता हो। मैं उसे नहीं जानता, इसलिए तुम सम्राट जनक के पास जाओ।' शिष्य थोड़ा हिचकिचाया, क्योंकि वह तो सब छोड़ देने को तैयार ही बैठा था और उसे भरोसा भी नहीं होता था कि यह जनक प्रज्ञावान पुरुष हो सकता है। अगर वह प्रज्ञावान है, तो फिर क्यों वह महल में रह रहा है? साधारण तर्क की बात है उसे तो त्याग देना चाहिए सब कुछ। उसे किसी चीज पर मालकियत नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि यही मूलभूत बातो में से एक है-सादगी में जीना, अपरिग्रह में जीना, संयम में जीना। तब तो व्यक्ति इतना सरल हो जाता है, इतना सीधा-सादा हो जाता है, तो वह क्यों जी रहा है सम्राट की भांति? लेकिन जब गुरु ने कहा, तो उसको जाना ही पड़ा। हिचकते हुए, अनिच्छा से वह पहुंचा वहा। शाम को वह पहुंचा; जनक ने उसे निमंत्रित किया दरबार में। बहुत राग-रंग भरा उत्सव चल रहा था वहा। सुंदर स्त्रियां नृत्य कर रही थीं, सुरा–सुंदरी का दौर चल रहा था, और करीब-करीब हर कोई नशे में चूर था। आश्रम से आए युवक को तो अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, और उसे अपने वृद्ध गुरु पर भी भरोसा नहीं आया कि क्यों उस नासमझ ने उसे यहां भेजा है! किस लिए? वह इतना घबड़ा गया कि वह तुरंत ही वहा से लौट जाना चाहता था, लेकिन जनक ने कहा, 'यह तो अपमानजनक होगा। तुम आए हो तो कम से कम एक रात तो रुको, कल सुबह चले जाना। और तुम इतने अशात क्यों हो? थोड़ी देर आराम करो। सुबह हम बात करेंगे कि आप यहां किस काम से आए हैं।' उस युवक ने कहा, 'अब कुछ पूछने की जरूरत नहीं। मैंने अपनी आंखों से देख लिया है कि यहां क्या हो रहा है।' जनक हंस दिए। उस युवक की आवभगत की गई-अच्छा भोजन खिलाया गया, अच्छी मालिश और स्थान का इंतजाम किया गया, बहत संदर कमरे में ठहराया गया, बहत मुल्यवान आरामदायक पलंग दिया गया। | था, जंगल के आश्रम से पैदल चल कर आया था राजधानी तक। जैसे ही वह बिस्तर पर लेटा, उसने देखा कि एक तलवार बहुत पतले धागे से बंधी ठीक उसके ऊपर लटक रही है। वह बहुत चकित हुआ कि आखिर इस सब का मतलब क्या है! और उसका इतनी अच्छी तरह स्वागत किया गया और अब ऐसा मजाक क्यों! वह सो न सका रात भर, लगातार भय बना रहा। न
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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