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________________ 'जब योगी सुनिश्चित रूप से सत्य में प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह बिना कर्म किए भी फल प्राप्त कर लेता है।' तब करने को कुछ नहीं बचता; हर चीज घटती है। ऐसा नहीं कि तुम कुछ करते नहीं-ध्यान रहे इस बात का-समग्र अस्तित्व तुम्हारे माध्यम से करता है; तुम करने वाले नहीं होते। जब योगी सुनिश्चित रूप से अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है तब आंतरिक समदधियां स्वयं उदित होती हैं। तुम सदा ही खजानों की खोज में रहे हो और वे कहीं मिलते नहीं, और वे मृग-मरीचिकाए सिद्ध होते हैं, और वे दूर दिखते हैं और लंबी यात्राओं के बाद जब तुम वहां पहुंचते हो तो वे ओझल हो जाते हैं क्योंकि असली खजाना तो तुम्हारे भीतर छिपा है। वह तुम स्वयं हो! और कोई खजाना नहीं है, तुम्हीं हो खजाना। जब कोई अस्तेय में प्रतिष्ठित हो जाता है. 'अस्तेयप्रतिष्ठाया।' अस्तेय शब्द का ठीक-ठीक अर्थ हैअचौर्य। इस बात को ठीक से समझ लेना है। ईमानदारी शब्द वही अर्थ नहीं रखता। निश्चित ही ईमानदारी एक हिस्सा है अचौर्य का, बहत से हिस्सों में एक हिस्सा, लेकिन अचौर्य बड़ी अलग बात है। तुम शायद चोर नहीं हो, लेकिन अगर तुम्हें दूसरों की संपत्ति देख कर ईर्ष्या होती है तो तुम चोर हो। अगर एक कार गुजरी करीब से और ईर्ष्या पकड़ गई या महत्वाकांक्षा उठ खड़ी हुई, इच्छा उत्पन्न हो गई कार पाने की-तो चोरी हो गई। कोई अदालत तम्हें नहीं पकड़ सकती, लेकिन उस परम अस्तित्व की अदालत में तुम चोर हो गए; चोरी हो गई। अचौर्य का अर्थ है. इच्छारहित मन। क्योंकि इच्छाओं के रहते कैसे तुम अ-चोर हो सकते हो? मन और- और चीजों पर मालकियत करने की कोशिश करता है और जब भी तुम मालकियत जमाना चाहते तो तुम्हें उसे छीनना होता है किसी दूसरे से। यह चोरी है। तुमने वस्तुत: न भी की हो, लेकिन मन तो कर ही चुका होता है चोरी। अचौर्य का अर्थ है वह मन जो ईर्ष्यालु नहीं है, जो प्रतियोगी नहीं है। और फिर एक बड़ी क्रांति घटती है जब यह अचौर्य आ जाता है तुम्हारे अंतस में, तो अचानक तुम अपने खजाने में उतर जाते हो। क्योंकि जब तुम चोर होते हों-प्रतियोगी, महत्वाकांक्षी, ईर्ष्यालु-तो तुम सदा दूसरों के खजानों की तरफ देख रहे होते हो। और तुम अपना खजाना चूक रहे होते हो। दृष्टि सदा बाहर लगी रहती है और दूसरों के खजानों को देखती रहती है. कौन क्या-क्या लिए है, किस के पास क्या-क्या है। जब तुम और की दौड़ में पड़े होते हो तो तुम उसे चूक रहे होते हो जो तुम्हारे पास पहले से ही है। उसी 'और-और' के कारण तुम हमेशा दौड़ते रहते हो और कभी उस शांत भावदशा में नहीं होते जहां कि तुम अपनी अंतस सत्ता को आविष्कृत कर सकते हो।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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