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________________ कोई सम्मोहित नहीं कर रहा है, तो भी ऐसा सदा लगता रहा है कि बुद्ध सम्मोहित करते हैं, जीसस सम्मोहित करते हैं। कोई नहीं सम्मोहित कर रहा है तुमको, लेकिन उनकी उपस्थिति ही इतनी शांति देने वाली होती है कि तुम नींद सी अनुभव करने लगते हो। तुम न जाने कब से ठीक से सोए नहीं हो, उनकी उपस्थिति तुम्हें शिथिल करती है, एक विश्राम देती है। उनके ऊर्जा- क्षेत्र की छांव में कुछ जो अप्रकट था प्रकट हो जाता है और जो प्रकट था पीछे चला जाता है। तुम वही नहीं रहते; तुम्हारा सारा ढंग बदल जाता है। अगर तुम इस प्रक्रिया को समझ सको तो तुम हिंदुओं के शब्द 'सत्संग' को समझ सकते हो। बस, बुद्ध पुरुष की मौजूदगी में होना। किसी और चीज की जरूरत नहीं है। पश्चिम करीब-करीब असमर्थ है इसे समझने में कि केवल मौजूदगी ही काफी है। सत्संग का अर्थ है, जिसने सत्य को पाया है, उसकी मौजूदगी में रहना-उसके साथ होना, उसके ऊर्जा- क्षेत्र में होना, उसकी तरंगों को आत्मसात करना। उस अंतिम रात्रि, जब जीसस अपने मित्रों से विदा ले रहे थे, उन्होंने रोटी के टुकड़े अपने शिष्यों को दिए और कहा, 'खाओ इसे; यह मैं हैं।' ऐसा संभव है। जब जीसस जैसा व्यक्ति अपने हाथ में रोटी लेता है, तो वह रोटी फिर वही नहीं रहती; वह दिव्य हो जाती है। और जब जीसस कहते हैं, 'यह मैं हं' तो उनका मतलब यही है। गुरु की मौजूदगी में होना उन्हें भोजन के रूप में ग्रहण करने जैसा ही है। असल में पुराने हिंदू शास्त्र कहते हैं कि सदगुरु के साथ होना उसके गर्भ में, उसके अंतर्गर्भ में होना है। वह ऊर्जा-क्षेत्र गुरु का गर्भ होता है। और जब तम उस गर्भ में होते हो, तब तम बदलने लगते हो, परिवर्तित होने लगते हो, रूपांतरित होने लगते हो। एक नई अंतस सत्ता का जन्म होता है। गुरु के द्वारा व्यक्ति एक नए जन्म को उपलब्ध होता है-वह 'द्विज' हो जाता है। उसका दोबारा जन्म होता है। एक जन्म मिलता है माता-पिता से-वह है शरीर का जन्म। एक और जन्म मिलता है गुरु सेवह है आत्मा का जन्म। बुद्ध के निकट होना, उनकी मौजूदगी में होना बुद्ध होने के मार्ग पर होना है। किसी और चीज की जरूरत नहीं होती। अगर तुम आत्मसात कर सको उस मौजूदगी को, अगर तुम उस मौजूदगी को अपने में प्रवेश होने दो, अगर तुम चेष्टाविहीन रह सको उस मौजूदगी में, उसे भीतर आने दो, ग्रहणशील रहो, तो सब कुछ अपने आप घटित होगा। हिंदुओं के पास दो शब्द हैं। एक तो है 'सत्संग', जिसे समझना करीब-करीब असंभव है पश्चिमी लोगों के लिए क्योंकि 'वे कहते हैं कि कोई शिक्षा होनी चाहिए। हिंदू कहते हैं. मौजूदगी पर्याप्त है, किसी और शिक्षा की जरूरत नहीं है। दूसरा शब्द है 'दर्शन'। उसे समझना भी कठिन है : सदगुरु को देखना भर पर्याप्त है। दर्शन का अर्थ है : देखना।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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