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________________ कहीं छिद्र है, तो पानी का तल ऊंचा नहीं उठ पाएगा। कामवासना छिद्र है तुम्हारे अस्तित्व में। यदि छिद्र नहीं है, तो ऊर्जा का तल और ऊंचा, और-और ऊंचा उठता चला जाता है, और एक घड़ी आती है-तब वह गुजरता है बहुत से केंद्रों से। पहले वह आता है हारा तक, मूलाधार से उठ कर वह आता है दूसरे केंद्र तक। उस केंद्र पर तुम्हें अमरता की अनुभूति होती है; तुम सजग हो जाते हो कि कुछ है जो कभी मरता नहीं है। भय तिरोहित हो जाता है। क्या तुमने ध्यान दिया कि जब भी तुम भयभीत होते हो, तो कोई चीज ठीक तुम्हारी नाभि पर चोट करती है? वही है मृत्यु का और अमरत्व का केंद्र। जब ऊर्जा गुजरती है उस केंद्र से, आ जाती है उस तल तक, तब तुम अमरत्व अनुभव करते हो। यदि कोई तुम्हें मार भी डाले, तो तुम जानते हो कि तुम्हें नहीं मारा जा रहा है. 'न हन्यते हन्यमाने शरीरे-शरीर को मारने से आत्मा नहीं मरती।' फिर ऊर्जा और ऊपर उठती है-तीसरे केंद्र पर पहुंचती है। तीसरे केंद्र पर तुम बहुत शांत होने लगते हो। क्या तुमने कभी ध्यान दिया कि जब भी तुम शांत होते हो, तो तुम पेट द्वारा श्वास लेने लगते हो-न कि छाती द्वारा? क्योंकि शांति का केंद्र ठीक नाभि के ऊपर है। नाभि के नीचे मृत्यु का और अमरत्व का केंद्र है; नाभि के ऊपर शांति का और तनावों का केंद्र है। यदि कोई ऊर्जा नहीं होती, तो तुम तनाव अनुभव करोगे; यदि कोई ऊर्जा नहीं होती तो तुम भय अनुभव करोगे। यदि वहां ऊर्जा होती है, तो तनाव तिरोहित हो जाता है; तुम बहुत विश्रामपूर्ण, निस्तरंग, शांत, मौन, प्रकृतस्थ अनुभव करते हो। फिर ऊर्जा उठती है चौथे केंद्र तक, हृदय-केंद्र तक। वहां प्रेम उदित होता है। ठीक अभी तो तुम प्रेम नहीं कर सकतेग और जिसे तुम प्रेम कहते हो, वह सिवाय कामवासना के और कुछ नहीं है। प्रेम' केवल सुंदर आवरण है। यह शब्द तुम्हारे अनुरूप नहीं है-हो नहीं सकता है। प्रेम केवल तब संभव होता है जब ऊर्जा हृदय के चौथे केंद्र तक पहुंच जाती है। अचानक ही तुम प्रेममय होते हो-संपूर्ण अस्तित्व के प्रेम में होते हो, प्रत्येक चीज के प्रेम में होते हो, तुम प्रेम ही होते हो। फिर ऊर्जा आती है पांचवें केंद्र तक, गले में आती है। वह केंद्र है मौन का केंद्र-मौन, सोच-विचार, वाणी। वाणी और मौन-दोनों हैं वहां। अभी तो तुम्हारा गला केवल बोलने का ही काम करता है। वह | जानता कि मौन कैसे रहना होता है, कैसे उतरना होता है मौन में। जब ऊर्जा वहा पहुंचती है, तो अचानक तुम मौन हो जाते हो। ऐसा नहीं है कि तुम कोई प्रयास करते हो, ऐसा नहीं है कि तुम अपने साथ जबरदस्ती करते हो मौन होने के लिए-तुम स्वयं को मौन, मौन से भरा हआ पाते हो। यदि तुम्हें बोलना भी हो, तो तुम्हें प्रयास करना पड़ता है। और तुम्हारी आवाज मधुर हो जाती है। जो कुछ भी तुम कहते हो, वह काव्य हो जाता है-तुम्हारे शब्दों में एक जीवंतता होती है। और तुम्हारे शब्द मौन संजोए होते हैं अपने आस-पास। वस्तुत: तुम्हारा मौन तुम्हारे शब्दों की अपेक्षा अधिक मुखर हो जाता है।
SR No.034097
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages431
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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