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________________ फिर पतंजलि ले आते हैं दो और शब्द, सविचार और निर्विचार। सविचार का अर्थ होता है चिंतनमनन सहित, और निर्विचार का अर्थ होता है बिना चिंतन-मनन के। वे उच्चतर अवस्थाएं हैं उसी घटना की जिसे वे कहते सवितर्क और निवितर्क। सवितर्क समाधि का यदि अनुसरण किया जाए, तो बन जाएगा सविचार। यदि तुम तर्कपूर्ण ढंग से सोचो और सोचते ही चले जाओ, तो तर्क के पास एक सीमा होगी। वह अपरिसीम नहीं है। तर्क अपरिसीम हो नहीं सकता। वस्तुत: तर्क सारी असीमताओ को नकारता है। तर्क सदा सीमा के भीतर होता है। केवल तभी यह तार्किक बना रह सकता है, क्योंकि असीम के साथ तो प्रवेश कर जाता है अतर्क। असीम के साथ प्रवेश करते हैं रहस्य, गढ़ताएं, असीम के साथ प्रविष्ट होती हैं अद्भुत बातें। इस प्रवेश के साथ, पडोरा–बाक्स खुल जाता है। अत: तर्क कभी बात नहीं करता असीम की। तर्क कहता है कि हर चीज सीमित है और व्याख्यायित की जा सकती है। हर चीज सीमाओं के भीतर है और समझी जा सकती है। तर्क सदा भयभीत होता है असीम द्वारा। वह जान पड़ता है विशाल अंधकार की भांति, तर्क कंपता है उसमें उतरने से। तर्क स्वयं को रखता है राजमार्ग पर, वह कभी शून्य में नहीं सरकता। राजमार्ग पर हर चीज सुरक्षित होती है और तुम जानते हो कि तुम कहां जा रहे होते हो। एक बार तुम अलग कदम रखते हो और शून्य में सरकते हो, तो तुम नहीं जानते कि तुम जा कहां रहे होते हो। तर्क एक बहुत गहरा भय है। यदि तुम मुझसे पूछो, तो तर्क सब से बड़ा कायर होता है। लोग जो कि साहसी होते हैं सदा तर्क के पार जाते हैं। लोग जो कायर होते हैं तर्क की काराओं के भीतर बने रहते हैं। तर्क सुंदरतापूर्वक सजायी गयी कैद है, वह किसी विशाल आकाश की भांति नहीं है। आकाश सजा हुआ बिलकुल नहीं है। वह अनसजा है, तो भी वह विशाल है। वह है निर्मुक्तता और निर्मुक्तता का अपना सौंदर्य होता है; उसे किसी सजधज की जरूरत नहीं होती। आकाश अपने में ठीक पर्याप्त है। उसे चित्रित करने को किसी चित्रकार की जरूरत नहीं है, उसे सजाने को किसी साज-सज्जा करने वाले की जरूरत नहीं है। संपूर्ण विस्तार ही इसका सौंदर्य है। लेकिन विस्तार भयभीत करने वाला भी होता है, क्योंकि वह इतना विशाल होता है कि मन बिलकुल ठिठक जाता है उसके सामने; मन तो बहुत छोटा जान पड़ता है। अहंकार बिखर-बिखर जाता है उसके सामने, इसीलिए अहंकार तर्क का, परिभाषाओं का, एक खूबसूरत कारागार बना लेता है -हर चीज सुनिश्चित स्पष्ट होती है। हर चीज होती है अनुभव किए ज्ञात की और अपने दवार बंद कर देता है अज्ञात के प्रति। वह बना लेता है एक अपना ही संसार, एक अलग संसार, एक निजी संसार। वह संसार संबंधित नहीं होता है संपूर्ण से; वह अलग किया जा चुका होता है। संपूर्ण के साथ सारे संबंध कट चुके होते हैं। इसलिए तर्क किसी को नहीं ले जाएगा परमात्मा की ओर, क्योंकि तर्क मानवीय है, और उसने परमात्मा के साथ के सारे सेतु तोड़ लिए हैं। परमात्मा, दिव्य और बीहड़ है; वह है बड़ा रहस्यपूर्ण और बड़ा विशाल। वह एक बड़ा रहस्य होता है जिसकी थाह नहीं पायी जा सकती है। वह कोई पहेली नहीं
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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