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________________ पास होती हैं वास्तविक आंखें पूरा-पूरा देखती हुई, हर कहीं, सभी ओर, सभी दिशाओं में देखती हुई। क्योंकि वह कुछ जानता नही है वह सारे समय सारी दिशाओं में बढ़ रहा होता है जिस क्षण तुम जान जाते हो, तुम कहीं न कहीं पकड़ में आ गए होते हो। यदि तुम फिर से बालक बन सकी और वास्तविकता को देख सकी बिना किसी अवरोध के व्याख्या के बिना किसी अनुभव के ज्ञान के, विशेषज्ञता के तो पतंजलि कहते हैं, 'निर्वितर्क समाधि उपलब्ध हो जाती है।' क्योंकि जब कोई व्याख्या नहीं होती, तब स्मृति शुद्ध हो जाती है और मन चीजों के सच्चे स्वभाव को देखने योग्य हो जाता है। , - पतंजलि समाधि को बहुत सारी परतों में बांट देते हैं। पहले तो वे बात करते हैं 'सवितर्क' समाधि के बारे में इसका अर्थ होता है तर्कयुक्त समाधि तुम अभी भी तार्किक व्यक्ति होते हो, तर्कयुक्त समाधि। फिर वे दूसरी समाधि को कहते हैं 'निर्वितर्क, तर्करहित समाधि । अब तुम वास्तविकता के बारे में तर्क नहीं कर रहे होते हो। तुम सत्य की ओर भी तुम्हारे ज्ञान सहित नहीं देख रहे होते। तुम तो बस देख रहे होते हो सत्य की ओर। वह व्यक्ति जो यथार्थ को देखता है तर्कसहित, विवेचना सहित, कभी नहीं देखता सत्य को। वह अपना मन प्रक्षेपित करता है यथार्थ पर अपने को प्रक्षेपित करने के लिए यथार्थ उसके लिए एक परदे की भांति काम करता है। और जो कुछ भी तुम प्रक्षेपित करते हो, तुम पाओगे वहां पहले तुम वहां रखते हो उसे, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां। यह एक वंचना है क्योंकि तुम स्वयं रखते हो उसे वहां, और फिर तुम उसे पा लेते हो वहां । वह सच नहीं होता। नसरुद्दीन एक बार कहने लगा मुझसे, 'मेरी पत्नी संसार की सर्वाधिक सुंदर स्त्री है। मैंने पूछा उससे, 'मुल्ला तुमने इसके बारे में जाना कैसे?' वह बोला, 'कैसे? बहुत सीधी बात है। मेरी पत्नी ने कहा था मुझसे।' इसी तरह बात चलती रहती है मन में तुम इसे यथार्थ पर प्रक्षेपित कर देते हो, और फिर इसे 'तुम पा लेते हो वहां यह होता है सवितर्क मन का दृष्टिकोण निर्वितर्क मन निर्विकल्प मन, कुछ प्रक्षेपित नहीं करता है। वह तो मात्र देखता है उसे जो भी अवस्था होती है। - क्यों अपने मन द्वारा कुछ प्रक्षेपित किए जाते हो यथार्थ पर? – क्योंकि तुम सत्य से भयभीत तुम होते हो। सत्य के प्रति बना एक गहरा भय होता है वहां ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारी पसंद का न हो। ऐसा हो सकता है कि वह तुम्हारे विरुद्ध हो, तुम्हारे मन के विरुद्ध हो। क्योंकि सच्चाई स्वाभाविक होती है, इसकी परवाह नहीं करती कि तुम कौन हो तो तुम भयभीत होते हो। सत्य तुम्हारी आकांक्षा पूर्ति नहीं कर सकता, तो बेहतर होता है उसे न देखना । तुम उसे देखते चले जाते हो, जिस किसी बात की तुम आकांक्षा करते हो। इसी तरह तुमने बहुत सारे जन्म गंवा दिए हैं- इधरउधर की मूर्खताओं में और तुम किसी दूसरे को मूर्ख नहीं बना रहे हो, तुम स्वयं को ही मूर्ख बना रहे हो। क्योंकि तुम्हारी व्याख्या और प्रक्षेयी द्वारा सत्य परिवर्तित नहीं किया जा सकता। तुम केवल पीड़ित होते हो अनावश्यक रूप से तुम सोचते हो कि द्वार है और द्वार है नहीं; वह दीवार है। तुम कोशिश करते हो उसमें से गुजरने की फिर तुम पीड़ित होते हो, फिर तुम जड़ हो जाते हो।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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