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________________ छोड़ दिया होता है वह मकान जिसमें कि तुम सदा रहते रहे हो, और दूसरे मकान तक तुम पहुंचे नहीं हो। तुम तुम्हारे सारे सामान सहित गाड़ी में हो रास्ते पर ही। यही है जो है मन : वह कोई मकान नहीं है, यह मात्र एक मार्ग है गुजर जाने को। और एक बार तुम समझ लेते हो इसे, तो उस पार का कुछ उतर चुका होता है तुम में। समझ कुछ पार की चीज है; वह मन की चीज नहीं है। ज्ञान मन का होता है। समझ मन की नहीं होती। ध्यान दो कि क्यों तुम अराजकता में हो और एक समझ तुम पर प्रकट होने लगेगी। दूसरा प्रश्न : कुछ वर्षों तक रेचक विधियों पर कार्य करने के बाद मैं अनुभव करता हूं कि मुझमें एक गहन आंतरिक सुव्यवस्था संतुलन और केद्रण घट रहा है। लेकिन आपने कहा कि समाधि की अंतिम अवस्था में जाने से पहले व्यक्ति एक बड़ी अराजकता में से गुजरता है। मुझे कैसे पता चले कि मैने अराजक अवस्था पार कर ली है या नहीं? पहली बात : हजारों जन्मों से तुम अराजकता में रहते रहे हो। यह कोई नयी बात नहीं है। यह बहुत पुरानी बात है। दूसरी बात : ध्यान की सक्रिय विधियां जिनका कि आधार रेचन है, तुम्हारे भीतर की तमाम अराजकता को बाहर निकल आने देती हैं। यही सौंदर्य है इन विधियों का। तुम चुपचाप नहीं बैठ सकते, तो भी तुम सक्रिय या अव्यवस्थित ध्यान कर सकते हो बहुत आसानी से। एक बार अराजकता बाहर निकाल दी जाती है, तो तुममें एक मौन घटना शुरू होता है। फिर तुम बैठ सकते हो मौनपूर्ण ढंग से। यदि ठीक से की गयी हों, निरंतर की गई हों, तो ध्यान की रेचक विधियां तुम्हारी अराजकता को एकदम विसर्जित कर देंगी बाहरी आकाश में। तुम्हें पागल अवस्था में से गुजरने की जरूरत न रहेगी। यही तो सौंदर्य होता है इन विधियों का। पागलपन तो पहले से ही बाहर फेंका जा रहा होता है। वह अंतर्गठित होता है विधि में ही। जैसे पतंजलि सुझाके, तुम वैसे शांत नहीं बैठ सकते। पतंजलि के पास कोई रेचक विधि नहीं है। ऐसा लगता है उसकी कोई जरूरत ही न थी, उनके समय में। लोग स्वभावतया ही बहुत मौन थे, शांत थे, आदिम थे। मन अभी भी बहुत ज्यादा क्रियाशील नहीं हुआ था। लोग ठीक से सोते थे, पशुओं की भांति जीते थे। वे बहुत सोच-विचार वाले, तार्किक, बौद्धिक न थे; वे हृदेय में केंद्रस्थ थे, जैसे कि अभी
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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