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________________ नहीं होता-ऐसा नहीं कि वह बहुत ज्यादा दूर होता है। वह किनारा जिसे तुमने छोड़ दिया, वह दीखता है। वह दूसरा किनारा जिसकी ओर तुम पहुंच रहे हो, वह अदृश्य होता है अपनी प्रकृति के कारण ही। ऐसा नहीं कि वह बहुत ज्यादा दूरी पर है, इसलिए वह अदृश्य है। जब तुमने उसे प्राप्त भी कर लिया होता है, तब भी वह अदृश्य बना रहेगा। वही उसका स्वभाव है, प्रकृति है। पशु बहुत ज्यादा प्रकट है। कहा है परमात्मा? क्या किसी ने कभी देखा है परमात्मा को? –नहीं देखा किसी ने। क्योंकि सवाल तुम्हारे देखने का या न देखने का नहीं है। परमात्मा है अदृश्यता, पूर्ण अज्ञात, सच्ची अबोधगम्यता। जिन्होंने पाया है वे भी कहते कि उन्होंने देखा नहीं, और वे हुए हैं उपलब्ध। परमात्मा कोई विषय-वस्तु नहीं हो सकता। वह तुम्हारे अपने अस्तित्व की गहनतम गहराई है। कैसे तुम देख सकते हो उसे? वह किनारा जो कि तुम छोड़ चुके बाहरी संसार में होता है, और वह किनारा जिसकी ओर तुम पहुंच रहे हो वह अंतर्जगत है। जो किनारा तुम छोड़ चुके, वह है वस्तुपरक; और जिस किनारे की ओर तुम बढ़ रहे हो, वह आत्मपरक है। यह तुम्हारी स्व-सत्ता की ही आत्मपरकता है। तुम उसे विषय-वस्तु नहीं बना सकते। तुम नहीं देख सकते हो उसे। वह ऐसा कुछ नहीं जिसे कि बदला जा सके विषय-वस्त में, जिसे कि तम देख सकी। वह द्रष्टा है, दृश्य नहीं। वह ज्ञाता है, ज्ञात नहीं है। वह तुम हो अपनी सत्ता के गहनतम अंतरतम में। मन वापस नहीं जा सकता, और नहीं समझ सकता कि आगे कहां जाए। वह अराजकता में रहता है, सदा उखड़ा हुआ, सदा सरकता हुआ न जानते कि कहां सरक रहा है; हमेशा आगे चलता हुआ। मन है एक तलाश। जब लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है, केवल तभी तिरोहित होती है तलाश। जब तुम संसार को देखते हो तो जरा ध्यान रखना, कि वह एक सुव्यवस्था है। प्रतिदिन सुबह उगता है बिना किसी भूल के, अचूक। दिन के पीछे रात आती है और फिर दिन आता है रात के पीछे। और रात्रि के आकाश में, लाखों, करोड़ों सितारे अपने मार्ग पर बढ़ते रहते हैं। मौसम एक दूसरे के पीछे आते रहते हैं। यदि आदमी न होता यहां, तो कहां होती अस्त-व्यस्तता? हर चीज ऐसी है जैसी कि होनी चाहिए। सागर लहराता रहेगा और आकाश फिर-फिर भरता रहेगा सितारों से। वर्षा आएगी, और शीत और ग्रीष्म, और हर चीज चलती रहती है संपूर्ण चक्र में। कहीं कोई अस्त-व्यस्तता नहीं है सिवाय तुम्हारे भीतर के। प्रकृति सुस्थिर है जहां कहीं भी वह है। प्रकृति कहीं उन्नत नहीं हो रही है। प्रकृति में कोई विकास नहीं होता है। परमात्मा में भी कोई विकास नहीं है। प्रकृति प्रसन्न है अपनी अचेतना में, और परमात्मा आनंदमय है अपनी चेतना में। दोनों के बीच तुम होते हो मुसीबत में। तुम होते हो तनावपूर्ण। न तो तुम होते हो अचेतन, और न ही तुम होते हो चेतन। तुम तो बस मंडरा रहे होते हो प्रेत की भांति। तुम किसी किनारे से नहीं जुड़े होते। बिना किन्हीं आधारों के, बिना किसी घर के, मन कैसे आराम से रह सकता है? वह खोजता है, ढूंढता रहता है-कुछ नहीं ढूंढ पाता। तब तुम ज्यादा और ज्यादा थके, निराश और चिड़चिड़े हो जाते
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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