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________________ 4-आप प्रेम में डूबने पर जोर देते है लेकिन मेरी मूल समस्या भय है। प्रेम और भय क्या संबंधित 5-कुछ न करना,मात्र बैठना है, तो ध्यान की विधियों में इतना प्रयास क्यों करें? पहला प्रश्न : आपने कहा कि प्रकृति विरोध करती है अव्यवस्था का और अव्यवस्था स्वयं ही व्यवस्थित हो जाती है यथासमय तो क्यों दुनिया हमेशा अराजकता और अव्यवस्था में रहती रही है? दनिया कभी नहीं रही अराजकता और अव्यवस्था में, केवल मन रहा है। संसार तो परम रूप से व्यवस्थित है। वह कोई अव्यवस्था नहीं, वह सुव्यवस्था है। केवल मन ही सदा अव्यवस्था में रहता है, और सदा रहेगा अव्यवस्था में ही। कुछ बातें समझ लेनी होंगी : मन की प्रकृति ही होती है अराजकता में होने की। क्योंकि वह एक अस्थायी अवस्था है। मन तो मात्र एक संक्रमण है स्वभाव से परम स्वभाव तक का। कोई अस्थायी अवस्था नहीं हो सकती है सुव्यवस्थित। कैसे हो सकती है वह सुव्यवस्था में? जब तुम बढ़ते हो एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक, तो बीच की स्थिति अव्यवस्था में, अराजकता में रहेगी ही। कोई उपाय नहीं है मन को सुव्यवस्थित कर देने का। जब तुम स्वभाव के पार हो रहे होते हो और परम स्वभाव में बढ़ रहे होते हो, बाह्य से अंतस में परिवर्तित हो रहे होते हो, भौतिक से अध्यात्म में परिवर्तित हो रहे होते हो, तो दोनों में एक अंतराल बनेगा ही जब कि तुम कहीं नहीं हो, जब कि तुम इस संसार से संबंध नहीं रखते और अभी भी तुम दूसरे से संबंधित नहीं होते हो। यही है अराजकतायह संसार छूट गया है, और मृत्यु अभी भी नहीं मिली। मध्य में तो, हर चीज एक अव्यवस्था होती है। और यदि तुम बने रहते हो मध्य में, तो तुम सदा ही अराजकता में रहोगे। मन के पार होना ही होगा। मन कुछ ऐसा नहीं है जिसके साथ रहा जाए। मन एक सेतु की भांति है : इसे पार करना है; दूसरे किनारे को प्राप्त करना ही है। और तुमने तो सेतु पर ही घर बना लिया है। तुमने सेतु पर रहना शुरू कर दिया है। तुम मन के साथ जुड़ गए हो।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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